बांसिया
बुग्ड़ा कपास की फसल में पाया गया एक छोटा सा कीड़ा है. छरहरे बदन के इस
कीड़े की टांगें अत्याधिक लम्बी व् धागेनुमा होती है. इस कीड़े के एंटीना
भी बहुत लम्बे होते हैं. इतनी लम्बी टांगों व् एंटीना के बावजूद इस कीड़े
के शरीर की लम्बाई बामुश्किल सात से दस मि.मी. ही होती है. Lygaeidae
कुटुंब की Jalysus जाती के इस बुग्ड़े की कई प्रजातियाँ पाई जाती हैं. कुछ
प्रजातियाँ तो शाकाहारी होती हैं और कुछ प्रजातियाँ आंशिक तौर पर परभक्षी
होती हैं. शाकाहारी बुग्ड़े कपास, मक्की, टमाटर, तम्बाकू व् घिया-तोरी आदि
के पौधों की पत्तियों की निचली सतह से रस चौसन कर गुज़ारा करती हैं.
इस कीट द्वारा फसलों में हानि पहुचाने की कोई शिकायत ना तो कभी किसी
किसान ने और ना ही किसी कीट-विज्ञानी ने कहीं दर्ज करवाई है. शायद इसीलिए
इस कीट की गिनती कपास के मेजर या मायनर कीटों में होना तो दूर की कौड़ी. कीट
विज्ञानिक तो कपास की फसल में हानि पहुँचाने कीटों में इस बांसिया बुग्ड़े
का जिक्र करना भी मुनासिब नही समझते. करें भी कैसे जब ये बांसिया बुग्ड़े
अपने वजूद का अहसास ही नही करा पाते. लेकिन हकीकत यह भी है कि रूपगढ,
राजपुरा, इग्राह, निडाना, निडानी, ललित खेडा, भैरों खेडा व् बराह कलां की
खेत पाठशालाओं में कपास की फसल में इस कीट को देख चुके हैं.
Sunday, August 28, 2011
Wednesday, August 24, 2011
कपास में कुण्डलक कीड़ा
. इस कुण्डलक का वयस्क 1"x1.5" के आकार का एक धब्बेदार भूरे रंग का पतंगा होता है। इसकी आगे वाली पंखों के मध्य भाग में चाँदी रंगे दो निशान होते हैं। देखने में ये निशान V या 8 जैसे दिखाई देते हैं। पीछे वाले पंख पिलाकी लिए भूरे रंग के होते हैं। किनारों पर यह रंग गहरा होता है। पतंगा नर हो या मादा, इनके पेट के अंतिम छोर पर बालों का गुच्छा होता है। इस कीड़े की मादा पतंगा अपने जीवन काल में सामान्य परिस्थितियों में लगभग 200-250 अंडे देती है। अंडे एक-एक करके पत्तियों की निचली सतह पर दिए जाते हैं। चपटे एवं अर्धगोलाकारिय इन अण्डों का रंग सफ़ेद होता है। अंडविस्फोटन होने में चार से छ: दिन लग जाते हैं. इस कुंडलक की नवजात सुंडियां पूर्ण रूपेण विकसित होने के लिए अपने जीवनकाल में पांच बार कांजली उतारती हैं। भोजन की उपलब्धता व् मौसम की मेहरबानी मुताबिक ये सुंडियां पूर्ण विकसित होने के लिए दो से चार सप्ताह का समय लेती हैं। हलके हरे रंग की यह सुंडी पूर्ण विकसित होने पर दो इंच तक लम्बी हो जाती है. प्युपेसन या तो पत्तों की निचली सतह पर या फिर पत्तों के मुड़े हुए किनारों के अंदर। प्युपेसन जमीन पर पड़े पौधों के मलबे में भी होती है। इस कीट की यह प्युपेसन अवधि आठ-दस दिन की होती है।
हमारे फसलतंत्र में इस कीट के अंडे व् नवजात सुंडियों को खाने के लिए लेडी बीटल की दर्जनों, कराईसोपा की दो व् मांसाहारी बुग्ड़ों की दस प्रजातियाँ मौजूद रहती हैं। इस कीट की सुंडियों से अपना पेट भरने वाले कम से कम आठ किस्म के तो हथजोड़े ही किसान कपास के खेतों में देख चुके हैं। इस कीट के पतंगों को हवा में गुछ्ते हुए लोपा व् डायन मक्खियों को किसान स्वयं अपनी आँखों से देख चुके हैं। इस कीट के अण्डों में अपने बच्चे पलवाने वाली दुनिया भर की सम्भीरकाएं भी हमारे फसलतंत्र में पाई जाती हैं। कपास के खेतों में मकड़ियां भी इस कीट को खाते हुए किसानों ने देखी हैं।
किसानों का कहना है कि जब हमारे खेतों में कीट नियंत्रण के लिए कीटनाशकों के रूप में इतने सारे कीट प्राकृतिक तौर पर पाए जाते हैं तो हमें बाज़ार से खरीद कर कीटनाशकों के इस्तेमाल की आवश्यकता कहाँ है?
Sunday, August 14, 2011
कपास में पत्ता-लपेट सुंडी
कपास की फसल में पाई जाने वाली यह पर्णभक्षी पत्ता-लपेट सुंडी है तो एक नामलेवा सा कीड़ा पर भारत के सभी कपास उगाऊ क्षेत्रों में पाया जाता है. पर यह छिटपुट की सुंडी भी कभी कभार किसानों को नानी याद दिला देती है। अंग्रेजी में इस कीड़े को Cotton leaf-roller कहते हैं। कीट वैज्ञानिक इसे वैज्ञानिक भाषा में Lepidoptera वंशक्रम के Pyralidae परिवार की Sylepta derogata कहते हैं।
इस कीट के पतंगें माध्यम आकार के तथा पीले से पंखों वाले होते हैं। इन पंखों पर भूरे रंग की लहरिया लकीरें होती हैं। पतंगे के सिर व् धड़ पर काले व् भूरे निशान होते हैं। पूर्ण विकसित पतंगे की पंखों का फैलाव लगभग 28 से 40 मि.मी. होता है। अन्य पतंगों की तरह ये पतंगें भी निशाचरी होते हैं। रात के समय ही मादा पतंगा एक-एक करके तकरीबन 200 -300 अंडे पत्तों की निचली सतह पर देती है। इन अण्डों से चार-पांच दिन में शिशु सुंडियां निकलती हैं। ये नवजात सुंडियां अपने जीवन के शुरुवाती दिनों में तो पत्तियों की निचली सतह पर भक्षण करती हैं।पर बड़ी होकर ये सुंडियां पत्तियों को किनारों से ऊपर की ओर कीप के आकार में मोड़ती हैं तथा इसके अंदर रहते हुए ही पत्तियों को खुरच कर खाती हैं। ये सुंडियां अपने वृद्धिकाल में छ: या सात बार कांजली उतारती हैं। इस कीट की यह लार्वल अवस्था लगभग 15 -20 दिन की होती है. यह कीड़ा अपनी प्यूपल अवस्था पौधों पर या फिर इन मुड़ी हुई प्रोकोपित पत्तियों के अंदर ही या फिर जमीन पर पौधों के मलबे में पूरी करता है। इस कीड़े को अपना ये प्यूपल-काल पूरा करने में आठ-दस दिन लग जाते हैं। इस कीट के प्रौढ़ सप्ताह भर जीवित रहते हैं। अपना जीवन सफल बनाने के लिए एक सप्ताह के अंदर-अंदर ही इन प्रौढ़ नर व् मादाओं को मधुर-मिलन भी करना होता है तथा मादाओं को अंड-निषेचन भी करना होता है।
खाने और खाए जाने के इस स्वाभाविक काम में इन्हें भी खाने वाले अनेकों कीट कपास की फसल में पाए जाते हैं। कातिल बुग्ड़े, छैल बुग्ड़े, सिंगू बुग्ड़े, दिद्दड़ बुग्ड़े, बिंदु बुग्ड़े व् दस्यु बुग्ड़े इस कीट की सुंडियों का खून व् अण्डों का जीवन-जूस पीते हैं। विभिन्न प्रकार की लेडी बीटल इसके अण्डों व् तरुण-सुंडियों का भक्षण करती हैं। लोप़ा मक्खियाँ इसके प्रौढ़ों का शिकार करती हैं। हथजोड़े के प्रौढ़ एवं बच्चे इस कीट की सुंडियों का भक्षण करते हैं। कोटेसिया नामक सम्भीरका इस कीट की सुंडियों के पेट में अपने बच्चे पालती है।
खाने और खाए जाने के इस स्वाभाविक काम में इन्हें भी खाने वाले अनेकों कीट कपास की फसल में पाए जाते हैं। कातिल बुग्ड़े, छैल बुग्ड़े, सिंगू बुग्ड़े, दिद्दड़ बुग्ड़े, बिंदु बुग्ड़े व् दस्यु बुग्ड़े इस कीट की सुंडियों का खून व् अण्डों का जीवन-जूस पीते हैं। विभिन्न प्रकार की लेडी बीटल इसके अण्डों व् तरुण-सुंडियों का भक्षण करती हैं। लोप़ा मक्खियाँ इसके प्रौढ़ों का शिकार करती हैं। हथजोड़े के प्रौढ़ एवं बच्चे इस कीट की सुंडियों का भक्षण करते हैं। कोटेसिया नामक सम्भीरका इस कीट की सुंडियों के पेट में अपने बच्चे पालती है।
Friday, August 12, 2011
तुरंगी ततैया!! -एक परजीव्याभ कीटनाशी
तुरंगी ततैया एक परजीव्याभ कीट हैं जो पर्यावरण की दृष्टि से हमारे लिए खास महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इनका जीवनयापन व् वंशवृद्धि दुसरे कीटों के जीवन की कीमत पर निर्भर करता है यानिकी ये तुरंगी ततैया हमारी फसलों में कीटनाशियों वाला काम हमारे लिए मुफ्त में करते हैं. अंग्रेजों द्वारा Ichneumon wasps पुकारे जाने वाले इस कीट की ज्यादातर प्रजातियाँ अपने अंडे Lepidoptera कुल की सुंडियों के शरीर पर देती हैं. इन अण्डों से निकले इनके लार्वा इन सुंडियों को खाकर ही पलते-बढ़ते हैं. इनके खाने का सलीका भी गज़ब का होता है. शुरुवात में इल्लियाँ अपनी आश्रयदाता सुंडियों के किसी भी महत्वपूर्ण अंग को नही खाती. बल्कि ये सुंडियों के वसा-ऊतक खाकर ही अपना गुज़ारा करती हैं. पूर्ण विकसित होने पर ही ये सुंडियों के महतवपूर्ण अंगों को खाना शुरू करती हैं. अत: आश्रयदाता सुंडियां परजीव्याभित होने पर कमजोर हो जाती हैं व् इनका विकास धीमा पड़ जाता है और अंतत: इनकी मौत हो जाती है.
-- वैसे तो इस कीट की विश्वभर में हजारों प्रजातियाँ पाई जाती हैं जो रंग-रूप में एक-दुसरे से भिन्न होती हैं. पर इस कीट की सभी प्रजातियों की मादाओं के पेट के सिरे पर एक लम्बा व् पतला अंडनिक्षेपक होता है. धागेनुमा लम्बे एंटीने, पतली कमर, पारदर्शी पंख व् लम्बा व् पतला अंडनिक्षेपक ही इस कीट की पहचान को आसान बनाते हैं. पर अफ़सोस है, आज कल हरियाणा में कपास की फसल में ये तुरंगी ततैया इका-दुक्का ही दिखाई देती है.
-- वैसे तो इस कीट की विश्वभर में हजारों प्रजातियाँ पाई जाती हैं जो रंग-रूप में एक-दुसरे से भिन्न होती हैं. पर इस कीट की सभी प्रजातियों की मादाओं के पेट के सिरे पर एक लम्बा व् पतला अंडनिक्षेपक होता है. धागेनुमा लम्बे एंटीने, पतली कमर, पारदर्शी पंख व् लम्बा व् पतला अंडनिक्षेपक ही इस कीट की पहचान को आसान बनाते हैं. पर अफ़सोस है, आज कल हरियाणा में कपास की फसल में ये तुरंगी ततैया इका-दुक्का ही दिखाई देती है.
Sunday, August 7, 2011
कपास में चेपा !!
कपास की फसल में फूलने-फलने की एक तरफा छुट तो इस कीड़े को भी प्रदान नही की प्रकृति ने. हमारे यहाँ के कपास-तंत्र में इस कीड़े को खाकर अपना गुज़र-बसर करने वाली दस तरह की लेडी बीटल, दो तरह के कराईसोपा, ग्यारह किस्म की मकड़ियाँ, पाँच प्रकार की सिरफड़ो मक्खियाँ व् भांत-भांत के भीरड़-ततैये किसानों द्वारा मौके पर देखे गये हैं. चेपे को उछाल-उछाल कर खाते हुए सिरफड़ो के मैगट को किसानों ने स्वयं देखा है व् इसकी वीडियो बनवाई हैं. दीदड़ बुग्ड़े के प्रौढ़ एवं शिशु भी इस चेपे का खून पीकर गुज़ारा करते देखे गये हैं। मोयली नामक सम्भीरका को अपने बच्चे इस चेपे के पेट में पलवाते हुए निडाना के रणबीर मलिक ने खुद के खेत में देखा है. बिराने बालक पालने के चक्कर में यह चेपा तो जमाएँ चेपा जाता है. अपने इन लक्षणों एवं काम के कारण यह मोयली भी फसल में उपलब्ध मुफ्त का एक कीटनाशी हुआ. रणबीर मलिक व् मनबीर रेड्हू तो इस मोयली को पपेवा पेस्टीसाइड कहते है. जी, हाँ! पराये पेट पलने वाला पेस्टीसाइड
Friday, August 5, 2011
सांवला मत्कुण
सांवला मत्कुण की गिनती कपास की फसल में हानि पहुचने वाले छिट-पुट कीटों में होती है. इस कीड़े का जिक्र तो कपास के फोहे खराब करने के लिए या घरों में भण्डारण के समय इंसानों को दुखी करने के लिए ज्यादा किया जाता है. कपास की लुढाई के समय इस कीट के प्रौढ़ों व् निम्फों का साथ पिसा जाना, रूई को बदरंग कर देता है. इस कीड़े को अंग्रेज लोग Dusky Cotton bug कहते हैं जबकि कीट- वैज्ञानिक इसे Oxycarenus laetus के नाम से जानते हैं. Hemiptera वंश के इस कीट के कुनबे को Lygaeidae कहा जाता है. बी.टी.कपास के जरे-जरे में मौजूद जहर के पक्षपाती होने के कारण कब कौनसा रस चुसक कीट माईनर से मेजर बन बैठे, कहा नही जा सकता?
तम्बाकूआ-सुंडी
| प्रौढ़ पतंगा |
![]() |
| सुंडी |
![]() |
| भक्षण |
कपास के खेतों में मकड़ियां भी इस कीट को खाते हुए किसानों ने देखी हैं।
किसानों का कहना है कि जब हमारे खेतों में कीट नियंत्रण के लिए कीटनाशकों के रूप में इतने सारे कीट प्राकृतिक तौर पर पाए जाते हैं तो हमें बाज़ार से खरीद कर कीटनाशकों के इस्तेमाल की आवश्यकता कहाँ है?
यह पर्णभक्षी कीड़ा हमारे यहाँ कपास की फसल में सितम्बर व् अक्तूबर के महीनों में क्यों आता है जबकि इसके खाने लायक पत्ते तो कपास की फसल में शुरुआत से ही होते हैं।
Thursday, August 4, 2011
कपास में चुरड़ा -एक शाकाहारी कीट!

अंग्रेजों द्वारा थ्रिप्स कहा जाने वाला यह चुरड़ा कपास की फसल में पाया जाने वाला एक छोटा सा रस चुसक कीट है. कीट- वैज्ञानिक इसे Thrips tabaci के नाम से पुकारते हैं. बनावट में चरखे के ताकू जैसा यह कीट पीले-भूरे रंग का होता है. इस कीट की मादा अपने प्रजनन-कल में 4-6 प्रतिदिन के हिसाब से 50-60 अंडे देती है. इन अण्डों की बनावट इंसानी गुर्दों जैसी होती है. इन अण्डों से ताप व् आब के मुताबिक तीन से आठ दिनों में शिशु निकलते हैं. इनका यह शिशुकाल सात-आठ दिनों का होता है तथा प्युपलकाल दो से चार दिन का. इस कीट के निम्फ व् प्रौढ़ पत्तियों की निचली सतह पर नसों के आस-पास पाए जाते हैं. इस कीट के शिशु एवं प्रौढ़ कपास के पौधों के पत्तों की निचली सतह को नसों के आस-पास खुरच कर रस पीते हैं. परिणामस्वरूप पत्तियों की निचली सतह चांदी के समान चमकने लगती है तथा उपरवाली सतह बादामी रंग की हो जाती है. ज्यादा प्रकोप होने पर पत्तियां ऊपर की तरफ मुड़ने लगती हैं. अंत में ये प्रकोपित पत्तियां सुख कर गिर भी जाती हैं.
यह कीड़ा कपास की फसल के अलावा प्याज़, लहसुन व् तम्बाकू आदि फसलों पर भी अपना जीवन निर्वाह व् वंश वृद्धि करता है. पर कपास की फसल में चुरड़ा अंकुरण से लेकर चुगाई तक बना रहता है. वो अलग बात है कि इस कीट की संख्या आर्थिक हानि पहुचाने के स्तर यानिकि दस निम्फ प्रति पत्ता पर कभी-कभार ही पहुँचती है. इस का मुख्य कारण कि इस कीट को खाने वाले कीड़े भी कपास कि फसल में लगातार बने रहते हैं. परभक्षी-मकड़िया जूं, छ: बिन्दुवा-चुरड़ा, दिद्दड़-बुग्ड़ा व् एन्थू-बुग्ड़ा इस चुरड़े का खून चूस कर गुज़ारा करने वालों में प्रमुख हैं. भान्त-भान्त की लेडी बीटल व् इनके बच्चे भी इस चुरड़े को खा कर अपना पेट पालते हुए कपास के खेत में पाए जाते हैं।
जिला जींद में किसानों द्वारा कपास में नलाई-गुड़ाई होने पर या तापमान में गिरावट होने पर इस कीट की संख्या में घटौतरी दर्ज की गयी है.
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