Sunday, December 27, 2009

प्राकृतिक कीटनाशी - अंगीरा !

2005 की साल हरियाणा प्रान्त में अमेरिकन कपास की साधारण किस्मों की जगह बी.टी. हाइब्रिडों का प्रचलन हुआ। इसके साथ ही कपास की फसल में फिनोकोक्स सोलेनोप्सिस नाम का मिलीबग भस्मासुर बन कर सामने आया और देखते-देखते ही कांग्रेस घास के पौधों पर भी छा गया। संयोग देखिये, अमेरिकन कपास, कांग्रेस घास व मिलीबग का निकासी स्थल एक ही है। हिंदुस्तान में आते ही मिलीबग को कांग्रेस घास के रूप में पूर्व परिचित, एक सशक्त वैकल्पिक आश्रयदाता मिल गया। कांग्रेस घास पर मिलीबग का किसानों के घातक कीटनाशकों से पुरा बचाव व सारे साल अपने व बच्चों के लिए भोजन का पुरा जुगाड़। पर प्रकृति की प्रक्रियाएं इतनी सीधी व सरल नही होती। बल्कि इनमेँ तो हर जगह हर पल द्वंद्व रहता है। प्रकृति में सुस्थापित भोजन श्रृंख्ला की कोई भी कड़ी इतनी कमजोर नही होतीं कि जी चाहे वही तोड़ दे। फ़िर इस मिलीबग की तो बिसात ही क्या? जिसकी मादा पंखविहीन हो तथा अन्डे थैली में देती हो। जिला जींद की परिस्थितियों में ही सात किस्म की लेडी बिटलों, पांच किस्म की मकडियों व पांच किस्म के बुगडों आदि परभक्षियों तथा तीन किस्म के फफुन्दीय रोगाणुओं के अलावा तीन किस्म की परजीवी सम्भीरकाओं ने मिलीबग को कांग्रेस घास पर ढूंढ़ निकाला। यहाँ की स्थानीय परिस्थितियों में मिलीबग को परजीव्याभीत करने वाली अंगीरा, जंगीरा व फंगीरा नामक तीन सम्भीरकाएं पाई गई है। इनमें से मिलिबग  के साथ विदेश से आई अंगीरा(Aenasius bambawalei Hayat) ने तो कांग्रेस घास के एक पौधे पर मिलीबग की पुरी आबादी को ही परजीव्याभीत कर दिया है। इस तरह की घटना कमकम ही देखने में आती है। मिलीबग नियंत्रण के लिए प्रकृति की तरफ़ से कपास उत्पादक किसानों के लिए एनासिय्स नामक सम्भीरका एक गजब का तोहफा है। भीरडनूमा महीन सा यह जन्नोर आकार में तो बामुश्किल एक-दो मिलीमीटर लंबा ही होता है। एनासिय्स की प्रौढ़ मादा अपने जीवनकाल में सैकडों अंडे देती है पर एक मिलीबग के शरीर में एक ही अंडा देती है। इस तरह से एक एनासिय्स सैकडों मिलिबगों को परजीव्याभीत करने का मादा रखती है। मिलीबग के शरीर में एनासिय्स को अंडे से पूर्ण प्रौढ़ विकसित होने में तकरीबन 15 दिन का समय लगता है। इसीलिए तो एनासिय्स को अंडे देते वक्त मिलीबग की ऊमर का ध्यान रखना पड़ता है। गलती से ज्यादा छोटे मिलीबग में अंडा दिया गया तो प्रयाप्त भोजन के आभाव में मिलीबग के साथ-साथ एनासिय्स की भी मौत हो जाती है। खुदा न खास्ता एनासिय्स ने अपना अंडा एक इसे ऊमर दराज मिलीबग के शरीर में दे दिया जिसकी जिन्दगी दस दिन की भी न रह रही हो तो भी एनासिय्स के पूर्ण विकसित होने से पहले ही मिलीबग की स्वाभाविक मौत हो जायेगी। परिणाम स्वरूप एनासिय्स की भी मौत हो जायेगी। इसीलिए तो एनासिय्स का पुरा जोर रहता है कि अंडा उस मिलीबग के शरीर में दिया जाए जिसकी जिन्दगी के अभी कम से कम 15 दिन जरुर बच रहे हों। अंडा देने के लिए सही मिलीबग के चुनाव पर ही एनासिय्स की वंश वृध्दि की सफलता निर्भर करती है। मिलीबग के शरीर में अंड विस्फोटन के बाद ज्योंही एनासिय्स का शिशु मिलीबग को अंदर से खाना शुरू करता है, मिलीबग गंजा होना शुरू हो जाता है। इसका रंग भी लाल सा भूरा होना शुरू हो जाता है। मिलीबग का पाउडर उड़ना व इसका रंग लाल सा भूरा होना इस बात की निशानी है कि मिलीबग के पेट में एनासिय्स का बच्चा पल रहा है। मिलीबग को अंदर से खाते रह कर एक दिन एनासिय्स का किशोर मिलीबग के अंदर ही प्युपेसन कर लेता है। फ़िर एक दिन पूर्ण प्रौढ़ के रूप में विकसित होकर मिलीबग के शरीर से बाहर आने के लिए गोल सुराख़ करेगा। इस सुराख़ से एनासिय्स अपना स्वतन्त्र प्रौढिय जीवन जीने के लिए मिलीबग के शरीर से बाहर निकलेगा। और इस प्रक्रिया में मिलीबग को मिलती है मौत तथा अब वह रह जाता सिर्फ़ खाली खोखा। यहाँ एनासिय्स यानि कि अंगीरा के जीवन कि विभिन्न अवस्थाओं के फोटों दी गई है। कांग्रेस घास सम्मेत विभिन्न गैरफसली पौधे जो मिलीबग के लिए आश्रयदाता है, एनासिय्स कि वंश वृध्दि के लिए भी वरदान है क्योंकि इन्हे इन पौधों पर अपनी वंश वृध्दि के लिए मिलीबग बहुतायत में उपलब्ध हो जाता है|
ललित खेड़ा गावं के रमेश व् रामदेव ने तो इस कीट के नर को मिलीबग के खोखे में बैठी मादा से मधुर मिलन के चक्कर में खोखे के चक्कर काटता देख लिया व् इंतजार के बाद इस जोड़े को रति-रत होते भी कैमरे के परदे पर बखूबी देख लिया.  कीट के रूप में प्रकृति प्रदत इस कारगर कीटनाशी की सही पहचान होने व् इसके क्रिया-क्लापों की बारीकी से जानकारी होने पर कौन किसान इतना मूर्ख होगा जो मिलीबग नियंत्रण के लिए बाज़ार से खरीद कर अपनी फसल में कीटनाशकों का इस्तेमाल करेगा? 

Saturday, October 31, 2009

कपास में सेधक कीट - लाल मत्कुण



 लाल मत्कुण एक रस चूसक हानिकारक कीट है। यह सर्वव्यापी कीट वैसे तो
हरियाणा में सारे साल पाया जाता है पर कपास की फसल पर इसका ज्यादा प्रकोप अगस्त से अक्तूबर तक देखा गया है। कीट सम्बंधित किताबों व रसालों में इस कीट को कपास की फसल का नामलेवा सा हानिकारक कीट बताया गया है। जबकि हरियाणा के किसान इसे बनिया कहते हैं तथा कपास की फसल में इसके आक्रमण को कपास के अच्छे भावः मिलने का संकेत मानते हैं। नामलेवा व मुख्य हानिकारक कीट के इस अंतर्विरोध को तो वैज्ञानिक और किसान आपस में मिल बैठ कर सुलझा सकते है या फ़िर समय ही सुलझाएगा। हाँ! इतना जरुर है कि इस कीट का आक्रमण देशी कपास की बजाय नरमा(अमेरिकन) में ज्यादा होता है तथा नरमा में भी बी.टी.कपास में अधिक होता है। इस कीट के बच्चेप्रौढ़ कपास के पत्तों, तनों, टिंडों व बीजों से रस चूस कर फ़सल में हानि पहुँचाते हैं। ज्यादा रस चूसे जाने पर प्रकोपित पत्तियां पीली पड़कर मुरझा जाती हैं। टिंडों से रस चुसे जाने पर इनके ऊपर सफ़ेद व पीले से धब्बे बन जाते हैं तथा टिंडे पूर्ण रूपेण विकसित नहीं हो पाते। इनके मल-मूत्र से कपास के रेशे बदरंग हो जाते हैं। टिन्डें खिलने पर ये कीट बीजों से रस चूसते है जिस कारण से ये बीज तेल निकलने एवं बिजाई लायक नही रह जाते। बीजों में इस नुक्सान से कपास की पैदावार में निश्चित तौर पर घटौतरी होती है जो प्रत्यक्ष दिखाई नही देती। इसीलिए तो कपास की फसल में इस कीट का भारी आक्रमण होने पर भी यहाँ के किसान घबराते नहीं और ना ही कोई किसान इस कीट के खात्मे के लिए कीटनाशकों का स्प्रे करता पाया जाता। क्योंकि इस कीट से होने वाले नुकशान का अंदाजा किसान डोले पर खडा होकर नहीं लगा सकता। लेकिन बी.टी.बीजों के प्रचलन के साथ-साथ इस कीट का हमला भी कपास की फसल में साल दर साल तेज होता जा रहा हैं और वो दिन दूर नही जब इस कीट की गिनती बी.टी.कपास के मुख्य हानिकारक कीटों में होने लगेगी? कपास के अलावा यह कीट भिन्डी, मक्का, बाजरा व गेहूं आदि की फसलों में भी दिखाई देता है.
             इस बणिये/मत्कुण को अंग्रेजी पढने-लिखने वाले लोग Red cotton bug कहते हैं। कीट वैज्ञानिक जगत में इसे Dysdercus singulatus के नाम से जाना जाता हैं। इसके परिवार का नाम Pyrrhocoridae तथा कुल का नाम Hemiptera है। इस कीट के प्रौढ़ लम्बोतरे व इकहरे बदन के होते हैं जिनके शरीर का रंग किरमिजी(गाढे लाल रंग की ही एक शेड) होता है। इनके पेट पर सफ़ेद रंग की धारियां होती हैं। इनके आगे वाले पंखों, स्पर्शकों व स्कुटैलम का रंग काला होता है।
                                     इस कीट की मादा मधुर-मिलन के बाद लगभग सौ-सवासौ अंडे जमीं में देती है। ये अंडे या तो गीली मिट्टी में दिए जाते है या फ़िर तंग-तरेडों में दिए जाते हैं। अण्डों का आकर गोल तथा रंग हल्का पीला होता है। अंड-विस्फोटन में सात-आठ दिन का समय लगता है। अंड-विस्फोटन से ही इन अण्डों से इस कीट के छोटे-छोटे बच्चे निकलते हैं जिन्हे कीट-वैज्ञानिक प्यार से निम्फ कहते हैं। शिशुओं को प्रौढ़ के रूप में विकसित होने के लिए समय और स्थान के हिसाब से तकरीबन पच्चास से नब्बे दिन का समय लगता है। इस दौर में ये शिशु पॉँच बार अपना अंत:रूप बदलते हैं। इसका सीधा सा मतलब है कि ये निम्फ प्रौढ़ के रूप में विकसित होने तक अपने जीवनकाल में पाँच बार कांझली उतारते हैं। इस कीट के प्रौढों का जीवन आमतौर पर 40 से 60 दिन का होता है।
इस कीट को गंदजोर भी कहा जाता है क्योंकि यह बग एक विशेष प्रकार की गंद छोड़ता है। इसीलिए इस कीट का भक्षण करने वाले कीड़े भी प्रकृति में कम ही पाए जाते हैं। Pyrrhocoridae कुल का Antilochus cocqueberti नामक बग तथा Reduvidae कुल का Rhynocoris नामक बग इस लाल मत्कुण के निम्फ व प्रौढों का भक्षण करते पाए गये हैं। भांत-भांत की मकडियां भी इस कीट के निम्फों एवं प्रौढों को अपने जाल में फांसे पाई जाती हैं। इसीलिए तो कपास के खेत में किन्ही कारणों से मकडियां कम होने पर इस लाल मत्कुण का प्रकोप ज्यादा हो जाता है। इस कीट के निम्फों एवं प्रौढों को मौत की नींद सुलाने वाले रोगाणु भी हमारे यहाँ प्रकृति में मौजूद हैं। जिला जींद के निडाना गावँ के खेतों में एक फफुन्दीय रोगाणु इस कीट ख़तम करते हुए किसानों ने देखा है। आमतौर पर ये कीटाहारी फफूंद सूक्ष्म बीजाणुओं के रूप में कीटों के शरीर की बाहरी सतह पर आक्रमण करती हैं। ताप और आब की अनुकूलता होने पर इन बीजाणुओ से फफूंद हाइफा के रूप में उगती है और देखते-देखते ही कीट की त्वचा पर अपना साम्राज्य कायम कर लेती है। यह फफूंद कीट की त्वचा फाड़ कर कीट के शरीर में घुस जाती है और इस प्रक्रिया में संक्रमित कीट की मौत हो जाती है। कुछ फफुन्दीय जीवाणु तो अपने आश्रयदाता कीट के शरीर में जहरीले प्रोटीन भी छोड़ते पाए जाते हैं। ये जहरीले प्रोटीन जिन्हें toxins कहा जाता हैं, भी कीट की मौत का कारण बनते हैं।


Tuesday, August 25, 2009

प्राकृतिक कीटनाशी - सींगू बुगडा

सींगू बुगड़ा का प्रौढ़।
सींगू बुगडा जिला जींद के परितंत्र में पाया जाने वाला एक सीधा-पादरा खून-चूसक परभक्षी है। वैसे तो यह कीट विभिन्न फसलों में पाए जाने वाले पच्चास से भी ज्यादा भांत-भांत के कीटों का खून चूस कर अपना जीवनयापन करता है। पर सुंडियां मिल जायें तो कहने ही क्या? मिल जाएँ कहीं फसलों में या खरपतवारों पर, इन्हें तो उनका खून चूस कर अपना पेट भरना होता है.
सींगू बुगड़ा के अर्भक।
इस कीट के प्रौढ़ अमूमन आधा इंच लंबे होते हैं व इनके शरीर का रंग भूरा होता है। इनके मजबूत कन्धों पर सींगनुमा कांटे होते हैं शायद इसीलिए यहाँ के किसान इसे सींगु बुगडा कहते हों। पर वैज्ञानिक तो इसे अपनी भाषा में Podisus maculiveentris कहते हैं। इसके परिवार का नाम Pentatomidae तथा इसके वंश का नाम Hemiptera है। इनका प्रौढिय जीवन पैंतीस से पच्चास दिन का होता है। इस बुगडे की मादा अपने जीवनकाल में एक हज़ार तक अंडे दे सकती है। मादा अपने ये अंडे पत्तों की निचली सतह पर गुच्छों में देती है। एक गुच्छे में तकरीबन बीस से तीस अंडे होते हैं। इन अण्डों का रंग क्रीमी से लेकर काला तक होता है तथा देखने में पीतल के बरोले जैसे दिखाई देते हैं जिनके किनारों पर खड़े रुंग होते हैं। इन अण्डों से चार-पाँच दिन में निम्फ निकलते हैं जिनका सिर व धड़ काला तथा पेट सुर्ख लाल होता है। ये निम्फ पहली कान्झली उतारने तक तो बरती ही रहते हैं तथा शेष निम्फल जीवन खून-चूसक परभक्षी के तौर पर बिताते हैं। इनका यह निम्फल जीवन पच्चीस-तीस दिन का होता है।
सींगू बुगड़ा के अंडे एवं अर्भक।
इस बुगडे की मादाओं की खुराक अपने नर साथियों के मुकाबले ज्यादा होती है पर नरों की तुलना में जिंदगानी बहुत कम होती है। नर तो 180 दिन जिन्दा रहते हैं जबकि मादाएं तो सिर्फ़ 125 दिन ही जिन्दा रह पाती हैं। "ज्यादा खुराक-कम जिंदगी" के कारणों की तलाश या तो अति प्रकृति प्रेमी कर सकते है या फ़िर लगनशील कीट-वैज्ञानी। हम किसानों का काम तो इस कीट की पहचान व इसके स्वभाव के बारे में मामूली जानकारी होने से ही चल जाएगा। इस कीट का मांसाहारी होना किसानों के हक की बात है। हमारे फसलतंत्र में इसका पाया जाना लाजिमितौर पर कीटनाशकों पर खर्च को कम करवाएगा क्योंकि ये बुगड़े भी तो अपने जीवनयापन के लिए कीटों को खत्म करते है. कीटों का नाश करने वाले को हो तो कीटनाशी कहते हैं.

कपास का शाकाहारी कीट - चित्तकबरी सुंडी



 कुछ साल पहले तक हरियाणा प्रदेश में चितकबरी सूंडी कपास की फसल
 का मुख्य हानिकारक कीट होती थी। पर आजकल यह सूंडी कपास की 
फसल में बहुत कम दिखाई देती है। यह सूंडी पै समय का कहर है। या व्यापार का दोपहर है।। - कुछ कह नही सकते। हाँ, इतना जरुर है कि हरियाणा में किसान इस सूंडी को काला कीड़ा, धब्बेदार सूंडी व गोभ वाली सूंडी आदि नामों से जानते व पहचानते हैं। हमारे यहाँ कपास की फसल में इस कीड़े की दो प्रजातियाँ पाई जाती हैः इयरिआस विटैला और इयरिआस इन्सुलाना। इयरिआस विटैला नमी वाले मौसम में ज्यादा पाई जाती है तथा इयरिआस इन्सुलाना खुसकी वाले मौसम में ज्यादा पाई जाती है। इन कीट पंतगों की सिवासण पौधों के पत्तों, शाखाओं एवं फलीय भागों जैसे रोयेदार हिस्सों पर एक-एक करके 200 से 400 तक अण्डे देती हैं। इन अंडों का रंग हल्का नीला होता है। सामान्य परिस्थितियों में इन अंडों से तीन चार दिन बाद नन्ही सूंडियाँ निकलती हैं जो कपास के पौधों की गोभ व फलीय हिस्सों पर हमला करती हैं। जिस कारण गोभ मुरझाकर सूख जाती हैं, बौकी व फूल झड़ जाते हैं, ग्रसित टिंडे समय से पहले खिल जाते हैं तथा टिंडों में फौहा खराब हो जाता है। इस कीड़े की लार्वल अवस्था तकरीबन 10 से 16 दिन की होती है। इसके बाद यह सूंडी प्यूपा बन जाती है। इस कीड़े की यह प्यूपीय अवस्था पौधे के विभिन्न भागों, झड़ी हुई बौकियों व अन्य अवशेषों पर लगभग 4 से 9 दिन में पूरी हो जाती है। इस प्यूपा से प्रौढ़ पतंगे निकलते हैं जो 8 से 20 दिन तक जीवित रहते हैं।

ये पतंगे रात को ही सक्रिय रहते हैं. रात को ही नर-मादा का मधुर मिलन होता है तथा रात को ही अंड-निक्षेपण. दिन में तो इन्हें छुपकर रहना होता है. अन्यथा लोपा मक्खी व् डायन मक्खी इनका उड़ते हुए ही काम तमाम कर देती है. इस कीट के प्रौढ़ों व् सुंडियों के लिए घात लगा कर बैठे भान्त-भान्त(दिद्ड बुग्ड़ा, कातिल बुग्ड़ा, सिंगू बुग्ड़ा, बिन्दुवा बुग्ड़ा, एंथू बुग्ड़ा) के बुग्ड़े भी कपास के खेत में किसानों ने देखे हैं. ये मांसाहारी बुग्ड़े इस कीट के अण्डों से जीवन-रस पीने में भी माहिर होते हैं.























Tuesday, August 18, 2009

कपास में रस चुसक :- अष्टपदी

अष्टपदी या मकडिया-जूं , जिला जींद की कपास फसल में रस चूस कर हानि पहुँचाते पाया जाने लगा है। इस जीव की आठ टाँगे होती हैं इसीलिए तो इसे कीट नही कहा जाता। हाँ! वैज्ञानिकों की दुनिया में इस जीव को "Tetranychus sp." कहा जाता है। ये अष्टपदियाँ Tetranychidae नामक घुन परिवार से सम्बंधित हैं. इस परिवार में इन अष्टपदियों की हज़ार से भी ज्यादा प्रजातियाँ पाई जाती हैं. आमतौर पर ये महीन जीव अपनी सुरक्षा के  लिए पत्तों की निचली सतह पर रेशमी जाला बुनती हैं. शायद इसी गुण के कारण इन्हें मकडिया-जूं कहा जाता है. ये अष्टपदियाँ कपास की फसल में पत्तों की निचली सतह से रस चूस कर नुकशान पहुँचाती हैं। आकार में इतनी छोटी (बामुश्किल एक मिलीमीटर) होती हैं कि किसान को मुश्किल से ही दिखाई देती हैं। यूँ तो ये जीव लाल, हरी, सन्तरी या तिनका रंगी होती हैं पर पत्तों की निचली सतह पर धूल कण सी दिखाई देती हैं। सामान्य परिस्थितियों में इनकी जीवन यात्रा 9-10 दिन की होती है ।
गर्म व शुष्क मौसम इनके लिए ज्यादा अनुकूल होता है। याद रहे अष्टपदियाँ पत्तों, तनों व बौकियों से रस चूस कर पौधों को हानि पहुँचाती हैं। इससे पत्तों में क्लोरोफिल की भी कमी हो जाती है। वांछित भोजन ना मिलने के कारण पौधों की स्वाभाविक वृध्दि व् प्रजनन प्रक्रियाएं अवरुद्ध हो जाती हैं। पर स्वभाव से अष्टपदियाँ आक्रामक घुमंतू नही होती. इसका मतलब जिस पत्ते पर जन्म हुआ वहीं या एकाध साथ वाले पत्ते पर  गुज़ारा व् प्रजनन कर लिया. चेपों की तरह से इन्हें रसीली फुन्गलों में कोइ दिलचस्पी नही होती.
हमारी फसलों में इन  को खाने के लिए भान्त-भान्त के कीड़े पाए जाते हैं.
दस्यु बुगडा अपने भोजन में खाने के लिए अष्टपदियाँ मिलने को अपना सौभाग्य समझता है। छ: बिन्दुआ चुरडे तो इन अष्टपदियों को चट करते ही हैं। इन्हें तो रस चूसक चुरडे तक साफ कर जाते हैं। विभिन्न बिटलों के बच्चे भी इन अष्टपदियों को चाव से खाते हैं। इसीलिए तो इन अष्टपदियों के नियंत्रण के लिए किसी कीटनाशक का स्प्रे करने की आवश्यकता नही होती। कीटनाशकों के अनावश्यक स्प्रो से इन अष्टपदियों को खाने वाले कीट भी बेमौत मारे जाते हैं और फसल में अष्टपदियों का प्रकोप बेकाबू हो सकता है।

Monday, August 10, 2009

कपास सेधक कीट - सफ़ेद मक्खी

रस चोर सफ़ेद मक्खी का जिक्र चलते ही आज पत्ता नहीं क्यों 13 साल पहले 1986 में पढा हुआ यह नारा याद आ गया, "चिट्टे कबूतर ते नीले मोर, सारे चोर - सारे चोर." यह नारा गुरमुखी में लकड़ी जला कर बनाए गये कोयले से बुडैल जेल की एक बैरक में सफ़ेद दिवार पर लिखा हुआ था. इस दृश्य को ताजा करने में सफ़ेद शब्द की भूमिका रही या चोर की या दोनों की यह तो मैं भी तय नहीं कर पाया हूँ. पीले शरीर वाले इस छोटे से कीट की पंखों का रंग सफ़ेद होने के कारण यह सफ़ेद ही दिखाई देता है व पौधों से रस चुराने वाला तो है ही. इसका प्रौढ़ मुश्किल से 1,0 से 1,5 मिलीमीटर लंबा होता है. देखने में यह कीट मक्खी जैसा कम व पतंगे जैसा ज्यादा नजर आता है. इस सफ़ेद मक्खी का असली मक्खियों वाले डिप्टेरा नामक वंश से भी दूर--दूर तक कोई रिश्ता--नाता नहीं. फेर क्यूँ ,अंग्रेजों ने इस कीट का नाम सफेद मक्खी रखा ? -- मेरी समझ तै बाहर सै. अर् अनुवादकों ने भी इसका अनुवाद सफ़ेद मक्खी करके जमाँ--ऐ हिन्दी करण में हद करदी. शायद इसीलिए तो आज भी कपास की फसल में नामलेवा से हानिकारक कीट स्लेटी भुंड को ही सफ़ेद मक्खी समझने वाले किसानों की हरियाणा में कोई कमी नही. इस दुनिया में सफ़ेद मक्खी के कारण फसलों में हर साल होने वाले नुकशान के आंकड़े तो डालरों में आपको कहीं ना कहीं मिल जायेगें पर सफ़ेद मक्खी के नाम पर स्लेटी भुंड को मारने के लिए हरियाणा के किसानों द्वारा हरियाणा के जन्म से लेकर अब तक करोडों रुपये बेमतलब कीटनाशकों पर खर्च किए जाने का आंकडा कहीं नहीं मिलेगा. अब आप ही बताइये कि कीटों व किसानों की इस अंतहीन महाभारत में बिना निजी मुनाफे के क्यों कोई अर्जुन रूपी राणा अपना तीर इस आर्थिक निशाने पर मारेगा?
परिचय :
खिद्दवा से इस रस चूसक की गिनती अमेरिकन कपास की फसल में हानि पहुँचाने वाले खतरनाक कीटो में होती है. रस चूसने के अलावा भी यह कई तरह से अपने आश्रयदाता को नुकशान पहुँचाता है. एक तो इसके मल--मूत्र में मिठास होती है जो पौधों के पत्तों को चीड़-पड़ा कर देती है जिससे प्रकोपित पत्ते निस्तेज होकर मुरझा जाते हैं व पीले पड़ जाते हैं. इस चीड़--पड़े मल--मूत्र पर सूटी--मोल्ड उग आती है. इससे पौधों की भोजन बनाने की प्रक्रिया ही रुक जाती है. दुसरे कपास की फसल में मरोडिया नामक बीमारी के जिम्मेवार वायरस की वाहक भी होती है यह सफ़ेद मक्खी. लीफ कर्ल वायरस का एक पौधे से दुसरे पौधे में संक्रमण इस कीट की लार के मार्फ़त ही होता है.
कीट--वैज्ञानिकों की भाषा में इसको Bemisia tabaci कहा जाता है. इस कीट का कुल Hemiptera वंश में से Aleyrodidae होता है. अपने यहाँ अगर इसका नाम खिद्दवा या मच्छरोड़ होता तो शायद किसानों को भी इसे पहचानने में सहूलियत होती.
Pseudopupa
जीवन--यात्रा:
इस कीट का प्रजनन सारा साल चलता रहता है. इस कीट की प्रौढ़ मादा अपने जीवन काल में सौ--सवासौ अंडे देती है. अंडे पूर्ण खुली हुई फुंगली पत्तियों की निचली सतह पर एक--एक करके दिए जाते हैं. पाँच--छ: दिन के बाद, इन अण्डों से बच्चे निकलते है जिन्हें निम्फ कहा जाता है. निम्फ का आकार इंच का तीसवां हिस्सा ही होता है. ये निम्फ रस चूसने का सही स्थान ढूंढने के लिए ही नाममात्र को चलते है. फ़िर तो एक ही जगह पड़े--पड़े रस चूसते रहते हैं. पॉँच--छ: दिन की इस प्रक्रिया के बाद ये निम्फ स्यूडो--प्यूपा में तब्दील हो जाते हैं. एक सप्ताह में ही स्यूडो--प्यूपा प्रौढ़ के रूप में विकसित हो जाते है. इनका प्रौढिय जीवन आमतौर पर बीस--इक्कीस दिन का होता है.
भोजन श्रृंख्ला:
रस चूस कर गुजारा करने के लिए इस कीट वास्ते धरती पर कपास के अलावा फुल--गोभी, पत्त--गोभी, सरसों, तोरिया, मक्की, आलू, बैंगन, भिन्डी, मिर्च व टमाटर आदि पौधे मौजूद हैं. इसको खाने के लिए फसल--तंत्र में कराइसोपा, ब्रुमस, लेडी बीटल  व डैम्सैल मक्खियाँ मौजूद रहती हैं. दीदड़  व् एंथु जैसे विभिन्न मांसाहारी बुगडे भी इनका कल्याण कर डालते हैं.
Eretmocerus spp.
एन्कार्सिया व इरेट्मोसेरस नामक सम्भीरकायें इस कीट के निम्फों व स्यूडो--प्यूपा को परजीव्याभीत करते हुए पाई जाती हैं.

Wednesday, August 5, 2009

प्राकृतिक कीटनाशी - दीदड़ बुगडा

दीद्ड़ बुगड़ा का प्रौढ़
बड़ी - बड़ी आँखों वाला यह छोटा सा किसान हिमायती कीट जिला जींद में भी पाया जाता है। सिर के दोनों ओर बाहर तरफ की उभरी हुई बड़ी-बड़ी आखों के कारण ही इसे यहाँ के किसान दीदड़ बुगड़ा कहते हैं। माँ की दुधी के साथ अंग्रेजी घोट कर पीये हुए लोग, इसे Big Eyed Bug कहते हैं। जीव-जंतुओं के नामकरण की द्विपदी प्रणाली के मुताबिक इसका नाम Geocoris sp. है। इस प्रणाली के अनुसार यह कीट Hemiptera क्रम के Lygaeidae परिवार का सदस्य है।

पहचान:
दीद्ड़ बुगड़ा का निम्फ
इस कीट का शरीर अन्डेनुमा पर थोड़ा बहुत चपटा होता है।  जाथर को देखते हुए इसका ललाट चौड़ा होता है जिसके दोनों तरफ़ बाहर की ओर उभरी हुई बड़ी-बड़ी आँखें होती हैं। इसके शरीर की लम्बाई लगभग चार मिलीमीटर होती है. इसके शरीर का रंग आमतौर पर स्लेटी, भूरा या हल्का पीला होता है। मुँह के नाम पर इस कीट का सुई जैसा डंक होता है जिसकी मदद से यह कीट अन्य कीड़ों का खून चूसता है।  इसके
निम्फ अपने प्रौढों जैसे ही होते है। बस  प्रौढों की तरह निम्फों के
पंख नहीं होते।
खान पानः
यह कीट शारीरिक तौर पर जितना छोटा होता है, शिकारी के तौर पर उतना ही खोटा होता है। इस कीट में उपर - नीचे व अगल - बगल में तेज़ी से घूमने की काबिलियत होती है। इस  गजब की चाल के कारण ही यह कीट उम्दा किस्म का आखेटक होता है। इस कीट के निम्फ व प्रौढ़, दोनों ही,  कुटकियों, चेप्पों व पौधों की पत्तियों पर पाए जाने वाले फुदकों का खून चूस कर अपना गुजारा करते हैं। ये बुगडे़ छोटी - छोटी इल्लियों, मकड़ीनुमा कुटकियों व पिस्सूआ बीटलों का भी खून पीते हैं। ये दीदड़ बुगडे़ सुई जैसी अपनी डंक की मदद से विभिन्न कीटों के अण्डों से जीवन-रस चूसने के तो विशेषज्ञ होते हैं। अंडे चाहे अमेरिकन सुंडी के हों, चित्तकबरी सुंडी के हों, गुलाबी सुंडी के हों, भुन्डों के हों, बीटलों के हों या किसी भी कीट के हों - इनके भोजन  का मुख्य हिस्सा होते हैं।
क्रिप्टोलेमस, ब्रुमस व नेफस जैसी किसान हिमायती छोटी - छोटी बीटलों का शिकार करने में भी इनको कोई गुरेज़ नहीं होता।  "बूढा मरो या जवान - हत्या सेती काम" किसानों का दोस्त फंसे या दुश्मन  - इस बात से इन बुगडों को कोई मतलब नहीं होता। बस इन्हें तो अपना पेट भरने से मतलब होता है  वो किसी के खून से  भर जाए- कोई बात नही। कपास की फसल में मिलीबग पाए जाने पर इन बुगडों के निम्फों व प्रौढों के ठाठ हो जाते हैं। कपास की फसल में मिलीबग का खून चूसते हुए इस दीदड़ बुगडे की वीडियो निडाना के किसानों ने बनाई है।  देखना या ना देखना, मर्जी आपकी। प्रकृति में खाने और खाए जाने के अदभुत खेल के खिलाड़ी भी हैं ये बुगडे। पर हमारे फसल- तंत्र में इनको खाने वाले कम तथा इन द्वारा खाए जाने वाले अधिक हैं।  इसीलिए तो इन दीदड बुगडों की गिनती किसानों की कीट-नियंत्रण में सहायता करने वाले उम्दा हिमायतियों में होती है। किसानों व कीटों को इस बात की जानकारी है या नहीं, ये  जानकारी तो हमेँ भी नहीं।

Wednesday, July 29, 2009

प्राकृतिक कीटनाशी - डायन मक्खी

टिड्डे का शिकार करती डायन मक्खी।
जिला जींद के फसलतंत्र में किसान मित्र के रूप में डायन मक्खी भी पाई जाती हैं. जी, हाँ! , राजपुरा ईगराह रूपगढ, निडाना व ललित खेडा के किसान तो इसे इसी नाम से जानते हैं जबकि अंग्रेज इसे Robber Fly कहते हैं. नामकरण की द्विपदी प्रणाली के अनुसार यह डायन मक्खी, Dipterans के Asilidae परिवार की Machimus प्रजाति है.
डायन मक्खी घोर अवसरवादी एवं प्रभावशाली परभक्षी होती है. डायन मक्खी के ये गुण इसके शारीरक ढांचे में निहित होते हैं. इन मक्खियों की टांगें काफी मजबूत होती हैं. ऊपर से इन पर कसुते कांटे होते हैं. इनके माथे पर दो जटिल एवं विशाल आँखों के मध्य खास खड्डे में तीन सरल आँखें भी होती हैं. अपनी इन आँखों व् टांगों के कारण ही ये मक्खियाँ शिकार का कोई अवसर हाथ से नही जाने देती. इनके चेहरे पर कसुते करड़े बालों वाली मुच्छ होती हैं जो मुठभेड़ के समय इनके बचाव के काम आती हैं.
टिड्डे को बेहोश करती डायन मक्खी।
 शिकार फांसने के लिए लुटेरों जैसी रणनीति के कारण ही शायद इन्हें डायन या डाकू मक्खी कहा जाने लगा. डायन  मक्खी अपने अड्डे से शिकार करती हैं. ये  मक्खी अपना अड्डा खुली एवं धुप वाली जगह बनाती हैं. अड्डे की जगह पौधों की टहनी, ठूंठ,  पत्थर व ढेला आदि कुछ भी हो सकती है. इस मचान पर बैठ कर ही यह मक्खी अपने शिकार का इंतजार करती रहती है. यहाँ से गुजरने वाले शिकार पर झपटा मरने के लिए इस मचान से उड़ान भरती हैं. कीट वैज्ञानिकों का कहना हैं कि यह डायन मक्खी अपनी टोकरिनुमा कांटेदार टांगों से ही उड़ते हुए कीटों को काबू करती हैं. हमने तो इस मक्खी को कई बार जमीन पर बैठे - बिठाए टिड्डों को भी झपटा मार कर अपनी गिरफ्त में लेते हुए देखा है.
टिड्डे का खून पिते हुए डायन मक्खी।
शिकार को पकड़ते ही, डायन अपना डंक उसके शरीर में घोपती है व इस डंक के जरिये ही वह शिकारी के शरीर में अपनी लार छोड़ती है. इस लार में एक तो ऐसा जहरीला प्रोटीन होता है जो तुंरत कारवाई करते हुए शिकार  के स्नायु- तंत्र को सुन्न करता है तथा दूसरा एक ऐसा पाचक प्रोटीन होता है जो शिकार के शरीर के अंदरूनी हिस्सों को अपने अंदर घोल लेता है. इन घुले हुए हिस्सों को डायन मक्खी ठीक उसी तरह से पी जाती हैं जैसे कोई बड़ा - बुड्डा दूध में दलिया घोल कर पी जाता है.
इनके भोजन में मक्खी, टिड्डे, भुंड, भिरड, बीटल, बग़, पतंगे व तितली आदि कीट शामिल होते हैं. डायन मक्खी कई बार अपने से बड़े जन्नोर का शिकार भी कुशलता से कर लेती हैं.


Tuesday, July 28, 2009

कपास में पुष्प-चर्वक कीट - तेलन

पुष्प पंखुड़ी भक्षण करती - तेलन
पुष्प पुंकेसर भक्षण करती - तेलन
उल्टी काण्ड पर तेलन
यह कीट ना तो तेली की बहु अर् ना इस कीट का तेली से कोई वास्ता फ़िर भी हरियाणा में पच्चास तै ऊपर की उम्र के किसान, अंग्रेजों द्वारा ब्लिस्टर बीटल कहे जाने वाले इस कीट को तेलन कहते हैं। हरियाणा के इन किसानों को यह मालुम हैं कि इस तेलन का तेल जैसा गाढा मूत अगर हमारी खाल पर लग जाए तो फफोले पड़ जाते हैं। इन किसानों को यह भी पता हैं कि पशु-चारे के साथ इन कीटों को भी खा लेने से, हमारे पशु बीमार पड़ जाते हैं। घोडों में तो यह समस्या और भी ज्यादा थी। एक आध किसान को तो थोड़ा-बहुत यह भी याद हैं कि पुराने समय में देशी वैध इन कीटों को मारकार व सुखा कर, इनका पौडर बना लिया करते। इस पाउडर नै वे गांठ, गठिया व संधिवात जैसी बिमारियों को ठीक करने मै इस्तेमाल किया करते। इस बात में कितनी साच सै अर् कितनी झूठ - या बताने वाले किसान जानै या इस्तेमाल करने वाले वैध जी। कम से कम हमनै तो कोई जानकारी नही।
हमनै तो न्यूँ पता सै अक् या तेलन चर्वक किस्म की कीट सै। कीट वैज्ञानिक इस नै Mylabris प्रजाति की बीटल कहते हैं जिसका Meloidae नामक परिवार Coleaoptera नामक कुनबे मै का होता है। इसके शरीर में कैन्थारिडिन नामक जहरीला रसायन होता है जो इन फफोलों के लिए जिम्मेवार होता है। इस बीटल के प्रौढ़ कपास की फसल में फूलों की पंखुडियों ,व्  पुंकेसर  को खा कर गुजारा करते हैं। कपास के अलावा यह बीटल सोयाबीन, टमाटर, आलू, बैंगन व घिया-तोरी आदि पर भी हमला करती है जबकि इस बीटल के गर्ब मांसाहारी होते हैं। जमीन के अंदर रहते हुए इनको खाने के लिए टिड्डों, भुन्डों, मैदानी-बीटलों व् बगों के अंडे एवं बच्चे मिल जाते हैं।
जीवन चक्र:
इस बीटल का जीवन चक्र थोड़ा सा असामान्य होता है। अपने यहाँ तेलन के प्रौढ़ जून के महीने में जमीन से निकलना शुरू करते है तथा जुलाई के महीने में थोक के भावः निकलते हैं। मादा तेलन सहवास के 15-20 दिन बाद अंडे देने शुरू कराती है। मादा अपने अंडे जमीन के अंदर 5-6 जगहों पर गुच्छों में रखती है। हर गुच्छे में 50 से 300 अंडे देती है। अण्डों की संख्या मादा के भोजन, होने वाले बच्चों के लिए भोजन की उपलब्धता व मौसम की अनुकूलता पर निर्भर करती है। भूमि के अंदर ही इन अण्डों से 15-20 दिन में तेलन के बच्चे निकलते है जिन्हें गर्ब कहा जाता है। पैदा होते ही ये गर्ब अपने पसंदीदा भोजन "टिड्डों के अंडे" ढुंढने के लिए इधर-उधर निकलते हैं। इस तरह से भूमि में पाए जाने वाले विभिन्न कीटों के अंडे व बच्चों को खाकर, ये तेलन के गर्ब पलते व बढते रहते है। अपने जीवन में चार कांजली उतारने के बाद, ये लार्वा भूमि के अंदर ही रहने के लिए प्रकोष्ठ बनते हैं। पाँचवीं कांजली उतारने के बाद, लार्वा इसी प्रकोष्ठ में रहता है। इस तरह से यह कीट सर्दियाँ जमीन के अंदर अपने पाँच कांजली उतार चुके लार्वा के रूप में बिताता है। यह लार्वा जमीन के अंदर तीन-चार सेंटीमीटर की गहराई पर रहता है। बसंत ऋतु में इस प्रकोष्ठ में ही इस कीट की प्युपेसन होती है। और जून में इस के प्रौढ़ निकलने शुरू हो जाते हैं।

Sunday, July 26, 2009

कपास में शाकाहारी कीट - तेला

तेले का प्रौढ़
अमेरिकन कपास में पत्तों से रस चूस कर गुज़ारा करने वाले मुख्य कीटों में से एक है यह तेला। यह तोतिया रंग का होता है जिसे हरियाणा में हरे तेले के रूप में जाना जाता है।अंग्रेज इसे jassid कहते है। जीव-जंतुओं के नामकरण की द्विपदी प्रणाली के मुताबिक यह कीट Cicadellidae कुल के Amrasca biguttula के रूप में नामित है।
लोहार की छेनी जैसा दिखाई देना वाला यह कीट लगभग तीन मिलीमीटर लंबा होता है। इसकी चाल रोडवेज की लाइनआउट खटारा बस जैसी होती है। स्वभावगत यह कीट लाइट पर लट्टू होने वाले कीटों में शुमार होता है।
तेला के प्रौढ़ एवं निम्फ, दोनों ही पौधों के पत्तों से रस चूस कर अपना गुज़ारा करते है। ये महानुभाव तो रस चूसने की प्रक्रिया में पत्तों में जहर भी छोड़ते हैं। रस चूसने के कारण प्रकोपित पत्ते पीले पड़ जाते हैं तथा उन पर लाल रंग के बिन्दिनुमा महीन निशान पड़ जाते हैं। ज्यादा प्रकोप होने पर पुरा पत्ता ही लाल हो जाता है तथा निचे की ओर मुड़ जाता है। अंत में पत्ता सुख कर निचे गिर जाता है।
तेले के निम्फ

तेले की सिवासन मादा अपने जीवन काल में तकरीबन 30-35 अंडे पत्तों की निचली सतह पर मध्यशिरा या मोटी नसों के साथ तंतुओं के अंदर देती है। 5-6 दिनों में विस्फोट हो,  इन अण्डों में से तेला के निम्फ निकल आते हैं। निम्फ पत्तों की निचली सतह से रस चूस कर अपना जीवन निर्वाह करते हैं। मौसम की अनुकूलता व भोजन की उपलब्धता के अनुसार, तेले के ये निम्फ प्रौढ़ के रूप में विकसित होने के लिए 10-20 दिन का समय लेते हैं।
तेले की कांझली
इस दौरान ये निम्फ तकरीबन 5 बार कांजली उतारते हैं। निम्फ से आगे का इनका यह प्रौढिय जीवन लगभग 40-50 दिन का होता है।
इस प्रकृति में खाने और खाए जाने की प्रक्रिया से तेले भी अछूते नहीं हैं। तेलों के निम्फ़ व प्रौढ़ कपास की फसल में पन्द्राह किस्म की  मकडियों, तीन किस्म की  कमसीन मक्खियों, तीन किस्म के  कराइसोपा व चौदाह किस्म की लेडी बीटल आदि जीव-जन्नौरों का कोप भाजन बनते हैं। दस्यु बुगडे़ के प्रौढ़ एवं निम्फ, दीद्ड़ बुगडे़  के प्रौढ़ एवं निम्फ,, कातिल बुगडे़ के निम्फ  व कंधेडू़ बुगडे़ के निम्फ इस कीट के खून के प्यासे होते हैं।

तेले का नुक्शान
तेले का शिकार करती लाल कुटकी
इस तेले के शिशुओं का खून चुसते हुए भैरों खेड़ा गावं के खेतों में कपास की फसल पर परभक्षी कुटकियाँ भी किसानों ने अपनी आँखों से देखी हैं। बामुश्किल आधा मिली मीटर लम्बी ये कुटकियाँ सुर्ख लाल रंग की थी।
इस तेले के अंडो में अंडे देने वाले भांत-भांत के परअंडिये भी भारत की फसलों में पाये जाते हैं। इनमे से  Arescon enocki नामक परअंडिया तो कारगर भी कसुता बताया गया।
                   तेले के प्रकोप से बचने के लिये पौधे स्वयं इन परभक्षियों, परजीव्याभों एवं परजीवियों को तरह-तरह की गंध हवा में छोड़ कर अपने पास बुलाते हैं। अदभुत तरीके हैं पौधों के पास अपनी सुरक्षा के।
किसानों को बस जरूरत है तो  अपनी स्थानीय पारिस्थितिकी को समग्र दृष्टि से समझने की। बाकि काम तो कीट एवं पौधे मिलकर निपटा लेंगे। 

Tuesday, July 21, 2009

कपास का नामलेवा कीट - स्लेटी भुंड

स्लेटी भुंड जिला जींद में कपास का नामलेवा सा हानिकारक कीट है। लेकिन "घनी सयानी दो बर पोया करै" अख़बारों में पढ़ कर अपनी फसल में कीडों का अंदाजा लगाने वाले किसानों की इस जिला में भी कोई कमी नहीं है। भारी ज्ञान के भरोटे तलै खामखाँ बोझ मरते थोड़े जाथर वाले किसान इस स्लेटी भुंड को ही सफ़ेद मक्खी समझ कर धड़ाधड़ अपनी फसल में स्प्रे करते हुए आमतौर पर मिल जायेगें। इसमें खोट किसानों का भी नहीं है। एक तो घरेलु मक्खी व इस भुंड का साइज बराबर हो सै। दूसरी रही रंग की बात। स्लेटी अर् सफ़ेद रंग में फर्क करना म्हारे हरियाणा के माणसां के बस की बात कोन्या। लील देकर पहना हुआ सफ़ेद कुर्ता भी दो दिन में माट्टी अर् पसीने के मेल से स्लेटी ही बन जाता है। इसीलिए तो रंगों व कीटों की पहचान का कार्य यहाँ के किसानों को बुनियाद से ही सिखने की आवश्यकता है। कीट ज्ञान व पहचान की बुनियाद पर ही कीट नियंत्रण का मजबूत महल खड़ा हो सकता है अन्यथा कीट-नियंत्रण रूपी रेत के महल पहले भी ताश के पत्तों की तरह ढहते रहे हैं और आगे भी ढहते रहेगें।
यह स्लेटी भुंड कपास की फसल के अलावा बाजरा, ज्वार व अरहर की फसल में भी पाया जाता है। इस कीट का प्रौढ़ पौधों के जमीन से ऊपरले व गर्ब ज़मीन के निचले हिस्सों पर नुक्शान करता है। इस कीट की दोनों अवस्थाए पौधों की विभिन्न हिस्सों को कुतरकर व चबाकर खाती हैं। इस कीट का प्रौढ़ पत्तों या फूलों की पंखुडियों के किनारे नोच कर खाता है। यह पुंकेसर भी खा जाता है जबकि इसका गर्ब पौधों की जडें खाता है। कुल मिलाकर यह कीट कपास की फसल में अपनी उपस्थिति तो दर्ज कराता है मगर फसल में इसका कोई उल्लेखनीय नुकशान नहीं होता। इसीलिए तो इसे सफ़ेद मक्खी समझ कर किसानों को खेत में मोनो, क्लोरो, एसिफेट व कानफिडोर जैसे घातक कीटनाशकों के साथ लटोपिन होने की जरुरत नहीं होती। आतंकित हो कर भलाखे में किए गये कीटनाशक स्प्रे किसान व स्लेटी-भुंड, दोनों के लिए खतरनाक होते हैं।
खानदानी परिचय: स्लेटी भुंड को द्विपदी प्रणाली मुताबिक कीट विज्ञानी माइलोसेर्स प्रजाति का भुंड कहते है इसके कुल का नाम कुर्कुलिओनिडि होता है। इस कीट की मादाएं पौण महीने की अवधि में लगभग साढे तीन सौ अंडे जमीन के अंदर देती हैं। इन अण्डों का रंग क्रीमी होता है जो बाद में मटियाला हो जाता है। अंडो का आकार एक मिलीमीटर से कम ही होता है। तीन-चार दिन की अवधि में अंड-विस्फोटन हो जाता हैतथा इसके शिशु अण्डों से बाहर निकल आते है। इस कीट के शिशु जिन्हें विज्ञानी गर्ब कहते हैं, जमीन के अंदर रहते हुए ही पौधों की जड़े खाकर गुजारा करते हैं। मौसम के मिजाज व भोजन की उपलब्धता अनुसार इनकी यह शिशु अवस्था 40 -45 दिन की होती है। इन शिशुओं के शरीर का रंग सफ़ेद व सिर का रंग भूरा होता है। इनके शरीर की लम्बाई लगभग आठ मिलीमीटर होती है। स्लेटी भुंड का प्यूपल जीवन सात-आठ दिन का होता है। प्युपेसन भी जमीं के अंदर ही होती

है। इसका प्रौढिय जीवन गर्मी के मौसम में दस- ग्यारह दिन का तथा सर्दी के मौसम में चार-पांच महीने का होता है। सर्दी के मौसम में यह कीट अडगें में छुपा बैठा रहता है। कपास की फसल में तो फूलों की शुरुवात होने पर ही दिखाई देने लगता है।

Saturday, July 18, 2009

प्राकृतिक कीटनाशी - कातिल बुगडा



" बुड्डा हो या जवान, हत्या सेती काम। " जी, हाँ! यही काम है इस सुधे एवं शांत से दिखाई देने वाले कीट का। निडाना, रूपगढ़, राजपुरा व ईगराह के किसान इसे कातिल बुगडा कहते हैं। यूरोपियन लोग इसे असैसिन बग कहते हैं। जीव विज्ञान की जन्मपत्री के मुताबिक इन बुगड़ों की प्रजातियों का नाम मालूम नहीं पर इनका वंशक्रम Hemiptera व् कुणबा Reduviidae जरुर सै। जिला जींद के निडाना गाम में किसान अपनी फसलों में अब तक इन कातिल बुगड़ों की तीन प्रजातियाँ देख चुके हैं। अपने से छोटे या हाण-दमाण के कीटों का कत्ल कर उनके खून से अपना पेट पालना व वंश चलाना ही इसका मुख्य धंधा है। इनके भोजन में गजब की विविधता होती है। इनके भोजन में मच्छरों, मक्खियों, मिलिबगों, तितलियों, पतंगों, बुगड़ों, भृगों तथा भंवरों सम्मेत अनेक किस्म के कीट व उनके शिशु शामिल होते है। कातिल बुगड़े व इनके बच्चे विभिन्न कीटों के अण्डों का जूस भी बड़े चाव से पीते हैं। ये बुगड़े हालाँकि उड़ने में हरकती होते हैं पर शिकार फंसते ही उसके शरीर में अपना डंक घोपने में एक सैकंड का समय नही लगाते। ये कातिल कीट डंक के जरिये शिकार के शरीर में अपना जहर छोड़ते हैं। इस जहर में शिकार के शरीर के अन्दरूनी हिस्सें घुल जाते हैं जिन्हें ये डंक की सहायता से चरड-चरड पी जाते हैं। मादाओं को प्रजनन का काम भी करना होता है। इसके लिए उन्हें सैंकडों की तादाद में अंडे देने होते हैं। इसीलिए तो मादाओं को नरों के मुकाबले ज्यादा प्रोटीनों की आवश्यकता बनी रहती है। प्रोटीनयुक्त ज्यादा भोजन कुशल शिकारी बनकर ही जुटाया जा सकता है। इसीलिए तो नरों के मुकाबले  इन बुगड़ो की मादा अधिक कुशल शिकारी होती हैं। शिकार ना मिलने की हालत में इनके भूखा मरने की नौबत भी आ जाती है। ऐसे हालत में ये एक दुसरे का कल्याण भी कर डालते हैं।

पकड़ने की कोशिश करने या इनके साथ छेड़खानी करने पर ये बुगडे इंसानों को भी डंक मारने से नही चुकते। इनके काटने से होने वाली असहनीय पीडा का सही अंदाजा तो इनका डंक मरवा कर ही लगाया जा सकता है। इंसानों में "चागा" नामक लाइलाज बीमारी फैलाने में इन कातिल बुगडो की बहुत बड़ी भूमिका होती है। अत: किसानों को इनका तमासा दूर से ही देखना चाहिए।


खानदानी परिचय :
कातिल बुगडों का मुहं बेशक बटवा सा न होता हो पर इनका डंक जरुर सुआ सा होता है। इनके शरीर का रंग काला व लाल या काला व भूरा होता है तथा शरीर की लम्बाई बीस-पच्चीस मिलीमीटर होती है। इनका गर्दन रूपी सिर काफी लंबा व पतला होता है। इनकी चमकदार आँखें माला के मनकों जैसी गोल -गोल व छोटी-छोटी होती हैं।
इनके शिशु जिन्हें कीट वैज्ञानी निम्फ कहते हैं, पंखों को छोड़कर अपने प्रौढों जैसे ही होते हैं। मौसम के मिजाज व भोजन की उपलब्धता के मुताबिक कातिल बुगडा के ये शिशु पैदा होने से लेकर प्रौढ़ बनने तक 65 से 95 दिन का समय लेते हैं और इस दौरान ये पॉँच बार कांझली उतारते हैं। इनका प्रौढिय जीवन 6 से 10 महीने तक का होता है। इस दौरान आशामेद होने के बाद, सिवासन मादाएं आमतौर पर समूहों में अंडे देती हैं।  एक समूह में तकरीबन चालीस से पच्चास अंडे होते है जिनका रंग गहरा भूरा होता है। इन अण्डों की बनावट सिगार जैसी होती है।





कातिल बुगड़े का अंडा.
कातिल बुगड़े का निम्फ












Friday, July 17, 2009

प्राकृतिक कीटनाशी - दस्यु बुगडा

"नन्ही - नन्ही बूंद पडै ........ साँग बिगडग्या सारा", पंडित लखमी चंद की इन मियां - मियां बूंदों जितना बड़ा व बुनावट में गिरती हुई आंसू जैसा यह कीट जिला जींद में किसानों एवं उनकी कपास का सांग ज़माने की पुरजोर कोशिश करता पाया गया है. निडाना,  ईगराह व ललितखेडा के किसान इसे दस्यु बुगडा कहते हैं जबकि कीट वैज्ञानिक इसे ओरियस प्रजाति का एन्थाकोरिड बग कहते हैं. इसके  शिशुओं का रंग सन्तरी व शरीर की लम्बाई बामुश्किल चार मिलीमीटर होती हैं.                                                  इसके प्रौढ़ लगभग चार - पाँच मिलीमीटर लंबे होते हैं. इनकी  पंखों    पर सफ़ेद व काले चित्तके होते हैं. इनकी  प्रौढ मादा अपने जीवन काल में सवा सौ से ज्यादा अंडे देती है. अंडे  पौधों के तंतुओं में दिए जाते हैं. अंड विस्फोटन में चार - पॉँच दिन का समय लग जाता है. अण्डों से निकले, इनके शिशु सात - आठ दिन में पंखदार प्रौढ़ के रूप में विकसित हो जाते हैं. इनका प्रौढिय जीवन तक़रीबन चौबीस- पच्चीस दिन का होता है  . यह बुगडा चूसक किस्म का सामान्य परभक्षी है जिसके भोजन में विभिन्न कीटों के अंडे, अल - चेपे, चुरडे, मक्खी, मच्छर, मिलीबग के शिशु व माँइट्स शामिल होते हैं. एक  दस्यु बुगडा प्रतिदिन तीस से ज्यादा चेप्पे चट कर जाता है.  पुरे जीवन में कितने खायेगा आप ख़ुद गुणा - भाग करके हिसाब लगालें. शिकार न मिले तो पराग --कणों व पौधों के जूस से ही गुजारा कर लेता है . इनके  इस थोड़े से दोगलेपन के कारण ही कीटनाशकों की मार इन पर कुछ ज्यादा ही पडती है.