भंभीरी एकांकी जीवन जीती है। कीट की प्रौढ़ मादा अपनी अगली टांगों के मदद से रेतीली मिट्टी में अपने घोंसले का निर्माण करती है। इस निर्माण में एक या दो प्रकोष्ठ ही होते हैं।
Monday, December 17, 2012
भंभीरी - प्राकृतिक कीटनाशी
भंभीरी एकांकी जीवन जीती है। कीट की प्रौढ़ मादा अपनी अगली टांगों के मदद से रेतीली मिट्टी में अपने घोंसले का निर्माण करती है। इस निर्माण में एक या दो प्रकोष्ठ ही होते हैं।
Sunday, December 16, 2012
प्राकृतिक कीटनाशी- बुच्ची संभिरकायेँ
प्रौढ़ ब्राची |
यहाँ के किसान इन बुच्ची संभीरकाओं की गिनती परप्यूपिये कीटों में करते हैं। क्योंकि ये कीट अपने बच्चे दुसरे कीटों के प्यूपों में पलवाते हैं। वैसे तो निडाना के खेत-खलियानों में दर्जनों किस्म की बुच्ची सम्भिरकाएं मौजूद होंगी। पर किसानों ने तो अभी तक दो ही तरह की पकड़ी हैं- एक ब्राची व् दूसरी कालसी। ब्राची कों इन्होंने तम्बाकुआ सुंडी के प्यूपा से निकलते देखा है व् कालसी को साईं मक्खी के प्यूपा से। ये सम्भिरका आकार में काफी छोटी होती हैं। औसतन 3 से 6 मिलीमीटर। शायद इसीलिए इनकी तरफ ज्यादा ध्यान नहीं गया और ना ही इनके कार्य पर। अन्यथा तो प्राकृतिक तौर पर कीट नियंत्रण में इन सम्भिरकाओं की भी खासी महती भूमिका है। ये संभिरका छोटी बेशक हों पर इनका बदन बलिष्ट एवं गठीला होता है। मुठिया एंटीने व् अत्याधिक मोटी जांघे इनकी पहचान है।
Saturday, December 8, 2012
राम का घोड़ा या गाय?
राम इस कीड़े का दूध कैसे पीता है और इसकी सवारी कैसे करता है? हमें तो आज तक मालूम नहीं हुआ। पर हमें यह जरुर मालूम है कि यह शाकाहारी कीड़ा कलकता से पेशावर तक पाया जाता है। पर पायेगा वहीं जहाँ आक के पौधे होंगे। पाये भी क्यों नहीं? आक इस कीड़े का प्रमुख एवं सबसे ज्यादा पसंद भोजन जो ठहरा। पर इसका मतलब यह नही कि ये आक के अलावा कुछ भी नहीं खायेंगे। भूखे मरते तो रो पीटकर 200 से भी ज्यादा पौधों की प्रजातियों पर गुज़ारा कर लेते हैं। जिनमें कपास, गेहूँ, मक्का, लोबिया, अरण्ड, भिंडी व बैंगन आदि भी शामिल हैं। सुना है 1973 की साल पाकिस्तान के झंग जिला में चिनाब नदी के आसपास इस कीड़े ने कपास, खरभुजे, मिर्च व् लोकी की फसल में काफी नुकशान पंहुचा दिया था। ऐसा तो इस कीड़े के निजी जीवन में अत्याधिक मानवीय हस्तेक्षप के कारण हो सकता है। अगर कोई आक़ के पौधे ही खत्म कर डाले तो ये बेचारे क्या करेंगे?
अपने प्रौढीय जीवन में प्रवेश के एक-दो दिन बाद ही इस कीट की मादायें सहवास के योग्य हो जाती हैं। इनके जोड़े 6-7 घंटे तक रतिरत रहते हैं। ये मादायें अपने जीवनकाल में 15-16 बार रतिरत होती है और हर बार नये नर के साथ। मादा अपने जीवन काल में एक या अधिक से अधिक दो अंड-फली देती है। हर अंड-फली में तकरीबन 150 अंडे होते हैं। इन अंडो से निकले निम्फ आक के पौधे के पास दिखाई देते हैं। पैदाइस से प्रौढ़ विकसित होने तक ये निम्फ आमतौर पर छ: बार कांजली उतारते हैं। खाने के लिए आक के पत्तों की उपलब्धता के बावजुद इस कीट के प्रौढ़ स्वाद बदली के लिये आपस में एक दुसरे को भी खा जाते हैं।
Sunday, October 28, 2012
घुघु -एक प्राकृतिक कीटनाशी
घुघु के नाम व् ठिकाने से सभी हरियाणा वासी भली-भांती परिचित हैं। यह कीड़ा खेत-खलियानों की सूखी व् बारिक रेत में दिखाई देने वाले कीपनुमा गड्डों की तली में मिट्टी के नीचे छुप कर रहता है। इन गड्डों में चींटियाँ डालकर उनका शिकार होते देख कर खूब मजे करते थे बचपन में। क्या आया याद आपको भी। "घुघु राजा, घुघु राजा-शक्ल जरा दिखला जा।" भूमि में रहते हुए चीटिंयों का शिकार करने वाला कोई और नही बल्कि यह घुघु ही तो होता था। अंग्रेज़ लोग इस घुघु को Antlion के नाम से जानते हैं। कीट विज्ञान की भाषा में इस कीट को Myrmeleon प्रजाति के रूप में जाना जाता है। कीट वैज्ञानिकों के मुताबिक इसका परिवार Myrmeleontidae व् वंशक्रम Neuroptera है। घुघु को अपनी जीवन यात्रा पूरी करने के लिये अंडा, लार्वा, प्यूपा व् प्रौढ़ अवश्थाओं से गुजरना पड़ता है। इस कीट की
इस कीट का लार्वा अपने गठीले पेट व् दरान्तिनुमा मजबूत जबड़ों की मदद से कीपनुमा खड्डा खोदता है। इस खड्डे की तली में मिट्टी के निचे छुप कर चुप-चाप शिकार का इंतजार करता है। जाने-अनजाने में जब भी
Sunday, September 2, 2012
इनो - एक परपेटिया कीटनाशी
कीट नियंत्रण के नाम पर आज बाज़ार में जितने ब्राण्ड के जहरीले कीटनाशी उपलब्ध हैं, उनसे कहीं ज्यादा किस्म के कीटनाशी कीट हमारी फसलों में मौजूद हैं। इन्हीं कीटनाशी कीटों में एक यह है- इनो। निडाना व् ललित खेड़ा के किसान इसी नाम से जानते हैं। इनो अपने बच्चे सफ़ेद मक्खी के शिशुओं के पेट में पलवाती है। इसीलिए निडाना कीट साक्षरता केंद्र के किसान इसे परपेटिया कीटनाशी कहते हैं। बामुश्किल आधा - एक मिलीमीटर के इस कीड़े का नामकरण दुनिया की किसी भी जन भाषा में नहीं हुआ। पर कीट वैज्ञानिकों की भाषा में जरुर इसको Encarcia spp. के रूप में पुकारा जाता हैं। वैज्ञानिकों की छोटी सी दुनिया में इसका वंशक्रम Hymenoptera व् कुणबा Aphelinidae बताया जाता है।
नाम में क्या रखा है। नाम तो कुछ रख लो। असली बात तो है इनको पहचानने की, समझने की व् परखने की।
सुनैहरी पीले रंग की इस संभीरका की मादा प्रजनन के लिए कपास के पत्तों पर सफ़ेद मक्खी की कालोनियों की तलाश में घूमती है। यहाँ सफेद मक्खी के शिशुओं को अपने एंटिनों से टटोल-टटोल कर उपयुक्त पालनहार की खोज करती है। उपयुक्त पालनहार मिलते ही यह मादा अपना एक अंडा पत्ते की सतह और मेज़बान के मध्य चुपके से रख देती है। इस तरह से इस छोटी सी ततैया को अपने छोटे से जीवन काल में सवासौ-डेढ़ सौ अंडे देने होते हैं। अत: इतने ही पालनहार ढूंढने पड़ते हैं। अंडे से निकलते ही इस ततैया का बच्चा पालनहार के पेट में घुस जाता है। और वहीं बैठा-बैठा आराम से मेज़बान को अन्दर से खाकर पलता-बढ़ता रहता है। इनो का यह बच्चा पूर्ण विकसित होकर प्युपेसन भी मेज़बान के शारीर में ही करता है। और फिर एक दिन इस मेज़बान के शारीर में गोल घट्टा कर एक प्रौढ़ अपना स्वतंत्र जीवन जीने के लिए बाहर निकलता है। इस सारी कार्यवाही में मेज़बान को तो निश्चित तौर पर मौत ही नसीब होती है। इस कीट के प्रौढ़ अपना गुज़र-बसर सफ़ेद मक्खियों को खा-पीकर करते हैं।
है ना गज़ब की प्राकृतिक कीटनाशी यह छोटी सी संभीरका। सफ़ेद मक्खी के लिए यमदूत और फसल के लिए रक्षक।
नाम में क्या रखा है। नाम तो कुछ रख लो। असली बात तो है इनको पहचानने की, समझने की व् परखने की।
सुनैहरी पीले रंग की इस संभीरका की मादा प्रजनन के लिए कपास के पत्तों पर सफ़ेद मक्खी की कालोनियों की तलाश में घूमती है। यहाँ सफेद मक्खी के शिशुओं को अपने एंटिनों से टटोल-टटोल कर उपयुक्त पालनहार की खोज करती है। उपयुक्त पालनहार मिलते ही यह मादा अपना एक अंडा पत्ते की सतह और मेज़बान के मध्य चुपके से रख देती है। इस तरह से इस छोटी सी ततैया को अपने छोटे से जीवन काल में सवासौ-डेढ़ सौ अंडे देने होते हैं। अत: इतने ही पालनहार ढूंढने पड़ते हैं। अंडे से निकलते ही इस ततैया का बच्चा पालनहार के पेट में घुस जाता है। और वहीं बैठा-बैठा आराम से मेज़बान को अन्दर से खाकर पलता-बढ़ता रहता है। इनो का यह बच्चा पूर्ण विकसित होकर प्युपेसन भी मेज़बान के शारीर में ही करता है। और फिर एक दिन इस मेज़बान के शारीर में गोल घट्टा कर एक प्रौढ़ अपना स्वतंत्र जीवन जीने के लिए बाहर निकलता है। इस सारी कार्यवाही में मेज़बान को तो निश्चित तौर पर मौत ही नसीब होती है। इस कीट के प्रौढ़ अपना गुज़र-बसर सफ़ेद मक्खियों को खा-पीकर करते हैं।
है ना गज़ब की प्राकृतिक कीटनाशी यह छोटी सी संभीरका। सफ़ेद मक्खी के लिए यमदूत और फसल के लिए रक्षक।
Saturday, September 1, 2012
बाजरे की सिर्टियों पर गुबरैले का बसेरा
यू हरे धातुई रंग का भूंड जो बाजरे की सिर्टियों पर बैठा दूर तै एँ नजर आया करै। यू चर्वक किस्म का एक शाकाहारी गुबरैला सै। अंग्रेजी में इस कीड़े को Rose chafer के रूप में जाना जाता है। कीट विज्ञानियों की दुनिया में इसे Cetonia aurata नाम से पुकारा व् लिखा जाता है। इस कीट के प्रौढ़ प्राय गुलाब के फूलों पर मधुरस व् परागकण पर गुज़ारा करते नजर आते हैं। पर हरियाणा के खेतों में तो गुलाब के पौधे होते ही नही। इसीलिए इस गुबरैले को बाजरे की सिर्टियों पर काचा बुर(पराग) खा कर गुज़ारा करना पड़ता है। और करै भी के? इसनै तो भी अपना पेट भरना सै अर वंश वृद्धि का जुगाड़ करना सै। बाजरे की फसल में तो बीज पराये पराग से पड़ते हैं। अत: इस कीट द्वारा बाजरे की फसल में पराग खाने से कोई हानि नही होती। बल्कि जमीन में रहने वाले इसके बच्चे तो किसानों के लिए लाभकारी सै क्योंकि जमीन में वे केंचुवों वाला काम करते हैं। अत: इस कीड़े को बाजरे की सिर्टियों पर देखकर किसे भी किसान नै अपना कच्छा गिला करण की जरुरत नही अर ना ऐ किते जा कर इसका इलाज़ खोजन की।
आपने हरियाणा में ज्युकर बहुत कम लोगाँ नै मोरनी पै मोर चढ्या देखा सै न्यू ऐ यू कीड़ा भी शायद बहु त ही कम किसानों व् कीट वैज्ञानिकों नै ज्वार की सिर्टियों पर देखा सै। असली बात तो या ऐ सै अक यू कीड़ा सै भी ज्वार की फसल का कीड़ा। पर कौन देखै ध्यान तै ज्वार की सिर्टीयाँ नै।
इस कीड़े को खान खातिर म्हारे खेताँ में काबर, कव्वे व् डरेंगो के साथ-साथ लोपा मक्खियाँ भी खूब सैं अर डायन मक्खी भी खूब सै। बिंदु-बुग्ड़े, सिंगू-बुग्ड़े व् कातिल-बुग्ड़े भी नज़र आवैं सैं। हथ्जोड़े तो पग-पग पर पावे सै। यें भी इसका काम तमाम करे सै।
Saturday, August 25, 2012
श्यामो: एक परजीव्याभ संभिरका
श्यामो एक परजीव्याभ संभिरका है जो अपने बच्चे पराये पेट पलवाती हैं। एकांकी जीवन जीने वाली इन संभिरकाओं के शारीर का रंग काला होता है पर इनकी झिलीदार पंखें नीली धात मारती हैं। इनके शारीर की लम्बाई लगभग 2-3 सै.मी. होती है। इनका वंशक्रम Hymenoptera व् कुणबा Scoliidae है। प्रौढ़ लीलो आमतौर पर फूलों पर ही दिखाई देती हैं। इनको अपना गुज़र-बसर करने के लिए मधुरस की आवशयक्ता होती जो इन्हें फूलों में मिलता है। पर इनके बच्चों को तो अपनी शारीरिक वृद्धि के लिए केवल जिंदा कीटों का मांस ही चाहिए। ये ततैया अपने बच्चों के लिये ना तो किसी किस्म छत्ता बनाती हैं और ना ही उनके लिये कीट ढूंढ़ कर लाती हैं। इस काम के लिए तो इन्होने एक नया ही तरीका अपना रखा है। इस कीट की मादा ततैया जमीन के साथ-साथ मंडराते हुए ऐसे कीटों की तलाश में रहती है जिनके पेटों में अपने बच्चे पलवा सके। और ये मिलते हैं इन्हे खाद , गोबर व् लकड़ी के ढेरों के पास। जी, ये होते हैं भान्त-भान्त के गुबरैलों के गर्ब जो जमीन के अंदर रहते हुए अपना गुज़ारा करते हैं। गुबरैलों के गरबों तक इन्हें या तो जमीन खोदनी पड़ती है या फिर गरबों द्वारा निर्मित सुरंगों का सहारा लेना पड़ता है। मन माफिक गर्ब मिलते ही ये ततैया उसको डंक मार कर लुंज कर देती है। फिर इसके पास या उपर अपना एक अंडा रख देती है। इस अंडे से निकला बच्चा इस लुंज गर्ब को ही खा पीकर बड़ा होता है। इस नवजात को मालूम होता है कि लुंज गर्ब का कौनसा हिस्सा पहले खाना होता है ताकि भोजन के रुप में उपलब्ध इस गर्ब को गलने-सड़ने से बचाया जा सके। एक मादा श्यामो अपने जीवनकाल में सैंकड़ो अंडे देती है। इसका मतलब इससे भी ज्यादा सफ़ेद लटों का खात्मा। गजब का प्राकृतिक कीट नियंत्रण। पर सब कुछ पर्दे के पीछे, जमीन के अंदर होता है। हमे नजर नही आता। पर इससे क्या फर्क पड़ता है। जमीनी हकीक़त तो अपनी जगह हकीकत ही रहेगी। "कीट नियंत्रनाय कीटा हि: अस्त्रामोगा11" अगर किसान इन कीटों को पहचानने लग जाये, समझने लग जाये व् परखने लग जाये तो निश्चित तौर पर हमारे खाने में, पानी में तथा हवा में जहर कम होगा। कीट नियंत्रण में किसानों के लगने वाले समय, पैसे व् मेहनत की बचत होगी।
Thursday, August 23, 2012
मुद्रो - एक कीटनाशी कीट
प्रौढ़ मुद्रो |
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Wednesday, July 25, 2012
ईंख में काला बुग्ड़ा
Cavelerius excavatus Dist. |
Monday, February 13, 2012
सरसों में चेपा- एक शाकाहारी कीट
चेपा सरसों की फसल का प्रमुख कीट है। इस कीट के शिशु एवं प्रौढ़ दोनों ही सरसों की फसल में पत्तों, टहनियों, फुन्गलों, कलियों व् कच्ची फलियों से रस पीकर अपना जीवनयापन एवं वंशवृद्धि करते हैं। अंग्रेज इसे Aphid कहते हैं। जबकि कीट विज्ञानी इस कीट को Lipaphis erysimi नाम से पुकारते हैं। इस चेपे का वंशक्रम Hemiptera व् कुटुंब Aphididae होता है।
सरसों की फसल के अलावा यह कीट तोरिया, तारामीरा, बंदगोभी, फूलगोभी व् करम कल्ला आदि फसलों में भी पाया जाता है। दिसम्बर से मार्च के मध्य सर्द एवं मेघमय मौसम इस कीट के लिए सर्वाधिक माफिक होता है। इस कीट की मादा अपने जीवनकाल में बिना निषेचन ही तकरीबन सौ-सवासौ शिशुओं को जन्म देती है। इस तरह पैदा हुए सभी बच्चे जनाने होते हैं और सात-आठ दिन में ही खा पीकर प्रौढ़ मादा के रूप में विकसित हो जाते हैं। इस तरह से एक साल में ही इस कीट की एक-दुसरे में गुत्थी हुई चालीस-चवालीस पीढियां पैदा हो जाती हैं। वसंत व् पतझड़ ऋतू में इस कीट की मादाएं नारों से मधुर-मिलन करके निषेचित प्रजनन से बच्चे पैदा करती हैं। ये शिशु पंखदार प्रौढ़ों के रूप में विकसित होते हैं। यही पंखदार प्रौढ़ गर्मियों में पहाड़ों पर कूच कर जाते हैं। लेकिन इस व्यापक प्रव्रजन के बावजूद मामूली संख्या में ये यहाँ भी रह जाते हैं जो गोभिया व् सरसों कुल के आवारा पौधों पर गुज़ारा करते हुए नजर आ जाते हैं।
इस कीट का ज्यादा प्रकोप होने पर सरसों के पौधे निश्तेज़ होने लगते हैं। प्रकोपित पत्ते मुड़ने-तुड़ने लगते हैं। प्रकोपित फूलों से फलियाँ नही बन पाती। प्रकोपित फलियों में दानें हलके रह जाते हैं। पर मजबूत खाद्य श्रृंखला वाले इस प्राकृतिक तंत्र में एक-तरफा फूलने-फलने की छुट किसी भी जीव को नही है। फिर ये चेपा कैसे अपवाद हो सकता है! इस चेपे के निम्फों एवं प्रौढ़ों को खा कर अपना व् बच्चों का पेट भरने वाले अनेकों कीट भी सरसों की फसल में पाए जाते हैं। लपरो(Coccinella septumpunctata) व् चपरो(Menochilus sexmaculatus) नामक लेडी बिटलों के प्रौढ़ एवं बच्चे इस चेपे को थोक के भाव खाते हैं। सिरफड़ो(Syrphus spp) मक्खी की अनेकों प्रजातियों के मैगट भी इस कीट के शिशुओं व् प्रौढ़ों का भक्षण उछाल-उछाल कर बड़े चाव से करते हैं।
दीदड़ बुग्ड़े के प्रौढ़ एवं शिशु भी इस चेपे का खून पीकर गुज़ारा करते देखे गये हैं।
एफ़ीडियस नामक परजीव्याभ सम्भीरका के साथ-साथ अन्य कई परजीव्याभ सम्भीरकायें भी अपने बच्चे इस चेपे के पेट में पलवाती हैं। चेपे के पेट में एफ़ीडियस का बच्चा पड़ते ही चेपा फुल कर कुपा होने लगता है और खाना पीना छोड़ देता है। अंतत: चेपा बिराने बालक पालने के चक्कर में ही मारा जाता है।
कुछ कीटभक्षी कवक भी इस चेपे को मौत की नींद सुलाते पाए जाते हैं। ऐसी एक सफ़ेद रंग की फफूंद से ग्रसित चेपा प.जयकिशन के खेत में किसानों ने सरसों की फसल में पकड़ा है। इस फफूंद के कारण चेपा रोग ग्रस्त होकर मौत की नींद सौ चूका है।
दीदड़ बुग्ड़े के प्रौढ़ एवं शिशु भी इस चेपे का खून पीकर गुज़ारा करते देखे गये हैं।
Lysiphlebus testaceipes |
कीटभक्षी कवक |
इतने सारे कीटभक्षी कीट एवं कवक तथा परजीव्याभ कीट मिलकर इस चेपे को निरंतर खत्म करते रहते हैं। इस तरह से यह चेपा शायद ही हमारी फसल में हानि पहुचने के स्तर पर पहुंचे। इसीलिए किसानों को कीड़े काबू करने की बजाय उनको जानने व् समझने की कौशिश करनी चाहिए।
Friday, February 10, 2012
सरसों में शाकाहारी कीट- धौलिया
नाम का धौलिया अर रंग का कालिया यह कीड़ा सरसों की फसल में पाया जाने वाला एक शाकाहारी कीट है। सरसों की फसल के अलावा यह कीट तोरिया, तारामीरा, बंदगोभी, फूलगोभी व् करम कल्ला आदि फसलों में भी पाया जाता है। यह कीट बाजरा, ज्वार, मक्की व् कपास की फसल पर भी गुज़ारा कर लेता है। इस बुग्ड़े के प्रौढ़ एवं निम्फ, दोनों ही फसल में पत्तों व् कच्ची फलियों से रस चूस कर गुज़ारा करते हैं। पत्तियों से ज्यादा रस निकल जाने पर वे मुरझा कर सुख भी सकती हैं। फसल की प्रारम्भिक अवस्था में इस कीट का आक्रमण होने पर सरसों की फसल में नुकशान भी हो सकता है। खासकर जब फसल अभी इंच-दो इंच की हो तथा प्रति पौधा कीटों की संख्या 3 -4 पायी जाने लगे। इस समय फसल के पत्तों पर सफ़ेद निशान पड़ जाते हैं। इसीलिए शायद किसान इस बुग्ड़े को धौलिया नाम से पुकारने लगे। अंग्रेज इस कीट को Painted bug कहते हैं। जबकि कीट विज्ञानी इसे Bagrada hilaris नाम से पुकारते हैं। वे बताते हैं की इस बुग्ड़े का नाता Hemiptra वंशक्रम से है तथा इसके कुनबे का नाम Pentatomidae है।
इस कीट के जीवन काल में तीन अवस्थाये होती हैं: अंडा; निम्फ व् प्रौढ़। प्रौढ़ मादा अपने जीवनकाल में लगभग 90-100 अंडे देती है। देखने में गोल-गोल इन अण्डों का रंग पीला-पीला सा होता है। अंडे एक-एक करके या गुच्छों में दिए जाते हैं। एक गुछे में 5-8 अंडे हो सकते हैं। मादा अपने ये अंडे पत्तों पर, डालियों पर, फलियों पर या भूमि में देती है। गर्मियों में तो इन अण्डों से चार-पांच दिन में निम्फ निकल आते है जबकि सर्दियों में अधिक समय लगता है।
इस बुग्ड़े के ये निम्फ काले रंग के होता है तथा इनके शारीर पर भूरे व्
सफ़ेद चकते होते हैं। पूरण विकसित होने पर इनके शारीर की लम्बाई-चौड़ाई 4.0X2.5 मी.मी. होती है। जन्म से लेकर प्रौढ़ के रूप में विकसित होने तक ये निम्फ पांच बार कांजली उतारते हैं।
इस कीट के प्रौढ़ संतरी व् सफ़ेद धब्बों के साथ काले रंग के ही होते हैं। देखने में ढ़ाल जैसे दिखाई देते हैं। मादाएं आकार में नरों के मुकाबले बड़ी होती हैं। हरियाणा में चाहे किसी किसान ने मोरनी-मोर के मधुर-मिलन को देखा या न देखा हो पर इस धौलिया बुग्ड़े के रतिरत जोड़े सभी किसानों ने खूब देख रखे हैं।
निडाना के किसानों ने इस बुग्ड़े के प्रौढ़ कभी-कभार मकड़ी के जाले में तो उलझे देखे हैं पर इसको खाने वाले कीड़े नही देखे हैं। यह तो प्रकृति में संभव नही कि इस कीट के परभक्षी, परजीव्याभ, परजीवी व् रोगाणु ना हों। पर निडाना के किसानों को इन महानुभावों के दर्शन नहीं हुए हैं। आपको दिखाई दे जाएँ तो जरुर जल्दी से जल्दी सुचना करना।
यह कीट अक्तूबर महीने की शुरुवात में ही दिखाई देने लग जाता है। फसल में इसका ज्यादा प्रकोप अक्तूबर के आखिर में होता है। सरसों की बिजाई अक्तूबर के आखरी सप्ताह में करने से फसल पर इस कीट का प्रकोप कम होता है।
Tuesday, February 7, 2012
साँठी वाली सुंडी
साँठी वाली सुंडी एक ऐसा कीड़ा है जो कपास की फसल में पाए जाने वाले साँठी, चौलाई व् कुंदरा आदि खरपतवारों के पत्तों को खा कर अपना गुज़ारा करता है। जिला जींद के निडाना गावं में किसानों ने अनेक अवसरों पर इस कीड़े को अपनी कपास की फसल में साँठी को ख़त्म करते हुए देखा है। खरपतवार का प्राकृतिक नियंत्रण। पर अफ़सोस कि बहुत सारे किसानों को भय बना रहता है कि कहीं यह कीड़ा सांठी को ख़त्म करके उनकी कपास की फसल को नुकशान न करदे। इसीलिए वो साँठी को ख़त्म करने के लिए खरपतवारनाशियों का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन निडाना खेत पाठशाला के किसान इस साँठी का सफाया करने के लिए किसी खरपतवारनाशी का इस्तेमाल नही करते। उनके खेतों में तो यह साँठी वाली सुंडी ही यह काम कर देती है। उन्होंने कभी भी इस साँठी वाली सुंडी को कपास के पत्ते खाते नहीं देखा। फिर इससे डर कहे का?
इस कीड़े को कीट विज्ञानं की भाषा में Spoladea
recurvalis कहते हैं। इस कीड़े के कुनबे का नाम Crambidae है। इसका वंशक्रम Lepidoptera है। अंग्रेज इस कीड़े को beet webworm कहते हैं। यह कीड़ा भगवान की तरह सर्वशक्तिमान हो या ना हो पर सर्वव्यापी तो है। दुनिया के तकरीबन देशों में पाया जाता है।
इस कीट के प्रौढ़ का रंग गहरा भूरा होता है तथा इसके पंखों पर सफेद धारियाँ होती है। इसकी शिवासन मादा एक-एक करके या गुच्छों में अंडे देती है। अंडे साँठी के पत्तों की निचली सतह पर दिए जाते हैं। इस कीट की मादा पतंगा अपने 12 -14 दिन के जीवन काल में लगभग 200 अंडे देती है। इन अण्डों से 5 -6 दिन में नवजात सुंडियां निकलती हैं। इन नवजात एवं तरुण सुंडियों की त्वचा पारदर्शी व् रंग हरा होता है। बड़ी होने पर इन सुंडियों का रंग लाल सा हो जाता है। इन सुंडियों को पूर्ण विकसित होने में 20 -22 दिन का समय लगता है। इस दौरान ये 4 -5 बार कांजली उतारती है। ये सुंडियां भूखड़ किस्म की होती हैं। मुख्य शिरा को छोड़कर पुरे के पुरे पत्ते को खा जाती है। ढांचा भर रहे साँठी के पौधे अंतत: सुखकर मर जाते है।
हमारी फसलों में इस सुंडी का उपभोग करने के लिए Cotesia plutellae नामक ब्रेकोन सम्भीरका बहुतायत में होती हैं। ट्राईकोग्रामा नामक सम्भीरका अपने बच्चे इस कीड़े के अण्डों में पालती है। इस कीट के प्रौढ़ों को उड़ते हुए ही लोपा मक्खियाँ पकड़ लेती हैं व् चट कर जाती हैं। डायन मक्खियाँ इस कीट के प्रौढ़ पतंगों का शिकार दिन-धौली करती हैं। दीदड़ बुग्ड़े, फलैरी बुग्ड़े, कातिल बुग्ड़े व सिंगु बुग्ड़े इस कीट के अंडों से जूस व् सुंडियों से खून पीने की ताक में रहते हैं। निडाना के किसानों ने इस कीट के प्रौढ़ पतंगों को मकड़ियों द्वारा लपेटते व् खाए जाते देखा है। मुंद्रो व् सुंद्रो नामक जारजटिया समूह के कीट भी इस कीट को भोजन के रूप में इस्तेमाल करते हैं। प्रकृति में इतना गज़ब का संतुलन होने के बावजूद भय एवं भ्रम के शिकार किसान इस कीट को काबू करने के लिये पीठ पर कीटनाशी पिठू लादे मिल जायेंगे। ऐसे समझदार किसानों का तो राम बरगा यू कीटनाशी बाज़ार ही रुखाला हो सकता है!
Sunday, January 22, 2012
कुम्हारी-एक कीटनाशी ततैया
"पतली कमर पर ढुंगे पै चोटी कोन्या !!
सै कुम्हारी पर कुम्हारों आली कोन्या !!"
असल में यह तो भीरड़-ततैयों वाले कुनबे की सै। अपना जापा काढण ताहि यह ततैया चिकनी मिटटी से छोटे-छोटे मटकों का निर्माण करती है। इसीलिए किसानों ने इसका नाम कुम्हारी रख लिया। वैसे तो इस ततैया की दुनिया भर में सैकड़ों प्रजातीय पाई जाती होंगी पर निडाना की कपास व् धान की फसल में तो अभी तक किसानों ने यही एक प्रजाति देखी है। यह कीट एकांकी जीवन जीने का आदि है मतलब समूह की बजाय अकेले-अकेले रहना पसंद करता है। काली, पीली व् गुलाबी छटाओं वाली इस ततैया की शारीरिक लम्बाई तकरीबन 15 -17 मी.मी. होती है। यह सही है कि इस कीट के प्रौढ़ तो फूलों से मधुरस पीकर अपना गुजर-बसर करते हैं पर इनके शिशुओं को अपनी शारीरिक वृद्धि के लिए बिना बालों वाली सुंडियां चाहिए। इसीलिए तो आशामेद होते ही इस कीट की मादा अंडे देने के लिए चिकनी मिटटी के छोटे-छोटे मटकों का निर्माण शुरू करती है। मटकों के लिए घरों से बाहर ऐसी जगह का चुनाव करती है जहाँ ये मटके सूरज के ताप, वायु के वेग और वर्षा की आल से सुरक्षित रह सके। चिकनी मिटटी तलाश कर, उसकी छोटी-छोटी गोलियां बनाती है तथा उन्हें अपने मुहँ और अगली टांगों की सहायता से निर्माण स्थल तक लाती है। इस मादा को एक फेरा पूरा करने में पांच मिनट तथा एक मटका घड़ने में लगभग आधा दिन लग जाता है। इस कपास के पत्ते पर मिटटी तो तीन मटकों के लिए ढ़ो राखी थी पर निर्माण एक का ही कर पाई थी कि फोटों खीचने वालों ने तंग कर दी। मटके घड़ने का काम पूरा करके खेतों में निकलती है यह मादा ततैया। वहां रोयें रहित सुंडियां तलाशती है। एक सुंडी ढूंढने में घंटा लग जाता है। सुंडी मिलते ही अपने डंक द्वारा जहर छोड़ कर उस सुंडी को लुंज कर देती है और उसे मटके में ला पटकती है। प्रत्येक मटके में सात-आठ से दस- बारह सुंडी रखती है। फिर हरेक मटके में अपना एक अंडा रखती है। इसके शिशु इन भंडारित सुंडियों को ही खा-पीकर विकसित होते है। मटके में ही प्युपेसन अवस्था पूरी करते हैं। मटके में अंड-निक्षेपण के बाद यह मादाएं मटके के मुहँ को बंद करना नही भूलती। आवासीय निर्माण के दौरान और बाद में भी ये ततैया मटकों के पास विश्राम नहीं करती। इस ततैया के नर मधुर-मिलन के अलावा दूर से ही सही, इन मटकों क़ी चौकीदारी तो करते हैं।
Wednesday, January 18, 2012
लाल मटकू - एक कीटनाशी बुग्ड़ा
इस लाल मटकू का प्रौढ़ जीवन काल तकरीबन दो से छ: माह का होता है, इस दौरान इसकी प्रौढ़ मादा औसतन 10 -12 बार अंड-निक्षेपण करती है. एक बार में 60 से 70 अंडे देती है. इस तरह से अपने जीवन काल में 600 - 700 अंडे देती है. अंड निक्षेपण से लेकर प्रौढ़ विकसित होने तक इन्हें दिवस अवधि अनुसार 45 से 90 दिन तक का समय लग जाता है. अपना जीवन पूरा करने के लिए इस कीड़े को 250 से भी ज्यादा लाल बनियों का खात्मा करना पड़ता है. यह भी ध्यान देने योग्य है कि इस लाल मटकू के निम्फ लाल बनिये के निम्फों का तथा प्रौढ़ प्रौढ़ों का शिकार करना पसंद करते हैं.
लाल मटकू के अंडे |
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