Thursday, November 3, 2011

मलंगा- धान की फसल में एक कीट


मलंगा धान की फसल में पाया जाने वाला एक नाम लेवा सा राष्ट्रव्यापी कीट है. पर धान की फसल में हानि पहुँचाने की स्तिथि में कभी-कभार ही पहुँचता है. यह कीट धान के पत्तों सम्मेत  पौधे के किसी भी भाग से रस चूसकर गुज़ारा कर लेता है. खानपान के मामले में इस कीट के शिशु (निम्फ) भी अपने बुजुर्गों का अनुशरण करते है. प्रौढ़ एवं निम्फ दोनों ही दुधिया दानों के रस को सबसे ज्यादा पसंद करते हैं, यही कारण है कि ये धान की फसल में बालियाँ निकलने पर ही ज्यादा दिखाई देते है. 
 इस मलंगे को अंग्रेजी जगत में Rice Gundhi Bug तथा विज्ञान जगत में leptocorisa acuta कहा जाता है. इसका वंशक्रम Hemiptera व् खानदान Coreidae है. सलोने रंग-रूप के इन प्रौढ़ों का बदन छरहरा एवं लम्बा होता है. इनकी टांगें व् एंटीने भी अच्छे-खासे लम्बे होते हैं. प्रकृति प्रदत्त इनका रंग हरिया भूरा सा तथा दर्जी के नाप अनुसार इनके शारीर की लम्बाई तक़रीबन 20  मि.मी. होती है. इनके नवजात तो बामुश्किल २ मि.मी. लम्बे तथा पीले से हरे रंग के होते हैं. पर शारीरिक वृद्धि के साथ-साथ इनका रंग भी हरे से भूरे रंग का होता जाता है.
हमारे हरियाणा में धान की फसल में यह कीट अगस्त के आखिर सी में दिखाई देने लग जाते हैं. इस कीट की मादा मधुर-मिलन के बाद पीले रंग के 24 -28  गोल-गोल अंडे पत्तों पर लाइन में रखती है. इन अण्डों से नवजात निकलने में 5 -6  दिन का समय लग जाता है तथा ये नवजात प्रौढ़ों के रूप में विकसित होने के लिए 17 -18  दिन का समय ले लेते हैं. इस दौरान ये शिशु छ: बार कांजली उतारते हैं. इस कीट का प्रौढीय जीवन 30 -32  दिन का होता है. इस कीट के प्रौढ़ एवं निम्फ सुबह-शाम ज्यादा सक्रिय रहते हैं.
     हमारे पुरखे तो छानी हुई राख का फसल पर छिडकाव करके ही इस कीट के नियंत्रण की इतिश्री कर लेते थे. पर आज कल के प्रगतिशील किसान तो बाज़ार से महंगे, नवीनतम व् घातक कीटनाशी खरीदकर फसल में प्रयोग करके ही अपनी पटरानियों को अपने कृषि ज्ञान का अहसास कराते रहते हैं. उन्हें यह मालूम नही होता कि असंख्य मांसाहारी कीट भी इन कीटों को खा-पीकर हमारी फसलों में मुफ्त में ही कीटनाशियों वाला काम करते हैं. लोपा मक्खियाँ व् डायन मक्खियाँ इस मलंगे के प्रौढ़ों का उड़ते हुए ही शिकार कर लेती हैं. किसानों ने इस कीट के प्रौढ़ व् निम्फ मकड़ियों के जाले में उलझे हुए देखे हैं. रणबीर मलिक ने हथजोड़े को इस कीट का शिकार करते हुए देखा है. रामदेवा के खेत में धान की फसल में हथजोड़े की अंडेदानी अनेक किसानों ने देखी है. आफियाना बीटल को धान की फसल में इस कीट के साथ लटोपिन हुए, रमेश ने देखा है. लेडी बीटलों के प्रौढ़ों एवं गर्बों को इस मलंगे के अंडे खाने का परहेज़ नही होता.
विभिन्न किस्म के फफुन्दीय रोगाणु भी इस कीट पर हमला करते पाए जाते हैं.
 पर अपने खेत में जारी इस प्राकृतिक कीट नियंत्रण के खेल को समय लगा कर समझे कौन?

Sunday, August 28, 2011

बांसिया बुग्ड़ा

 बांसिया बुग्ड़ा कपास की फसल में पाया गया एक छोटा सा कीड़ा है. छरहरे बदन के इस कीड़े की टांगें अत्याधिक लम्बी व् धागेनुमा होती है. इस कीड़े के एंटीना भी बहुत लम्बे होते हैं. इतनी लम्बी टांगों व् एंटीना के बावजूद इस कीड़े के शरीर की लम्बाई बामुश्किल सात से दस मि.मी. ही होती है. Lygaeidae कुटुंब की Jalysus जाती के इस बुग्ड़े की कई प्रजातियाँ पाई जाती हैं. कुछ प्रजातियाँ तो शाकाहारी होती हैं और कुछ प्रजातियाँ आंशिक तौर पर परभक्षी होती हैं. शाकाहारी बुग्ड़े कपास, मक्की, टमाटर, तम्बाकू व् घिया-तोरी आदि के पौधों की पत्तियों की निचली सतह से रस चौसन कर गुज़ारा करती हैं.

     इस कीट द्वारा फसलों में हानि पहुचाने की कोई शिकायत ना तो कभी किसी किसान ने और ना ही किसी कीट-विज्ञानी ने कहीं दर्ज करवाई है. शायद इसीलिए इस कीट की गिनती कपास के मेजर या मायनर कीटों में होना तो दूर की कौड़ी. कीट विज्ञानिक तो कपास की फसल में हानि पहुँचाने कीटों में इस बांसिया बुग्ड़े का जिक्र करना भी मुनासिब नही समझते. करें भी कैसे जब ये बांसिया बुग्ड़े अपने वजूद का अहसास ही नही करा पाते. लेकिन हकीकत यह भी है कि रूपगढ, राजपुरा, इग्राह, निडाना, निडानी, ललित खेडा, भैरों खेडा व् बराह कलां की खेत पाठशालाओं में कपास की फसल में इस कीट को देख चुके हैं.
    

Wednesday, August 24, 2011

कपास में कुण्डलक कीड़ा

          कपास की फसल में कुण्डलक कीड़ा एक ऐसा पर्णभक्षी कीट है जिसकी गिनती कपास के नामलेवा से कीटों में भी नही होती। यानीकि कपास की फसल में इसका प्रकोप कभी-कभार ही देखने में आता है। खेत में इसके आगमन की शुरुवात किनारों से ही होती है। इस कीट की सुंडी  विविध किस्म के पौधों की पत्तियां खा-पीकर अपना जीवन निर्वाह करती हैं। यह सुंडी पत्तों की नसों के बीच की  जगह को खाती है परिणामस्वरुप पत्ता नसों का ढांचा भर रह जाता है और अंत में झड़ जाता है। कपास की फसल में टिंडे पकने के समय इस तरह से पत्तों का झड़ जाना टिंडों तक रोशनी पहुँचने का रास्ता साफ करता है। और इस तरह से टिंडे खिलने में सहायक होता है। 
.                                          इस कुण्डलक का वयस्क 1"x1.5" के आकार का एक धब्बेदार भूरे रंग का पतंगा होता है। इसकी आगे वाली पंखों के मध्य भाग में चाँदी रंगे दो निशान होते हैं। देखने में ये निशान  V या 8 जैसे दिखाई देते हैं। पीछे वाले पंख पिलाकी लिए भूरे रंग के होते हैं। किनारों पर यह रंग गहरा होता है। पतंगा नर हो या मादा, इनके पेट के अंतिम छोर पर बालों का गुच्छा होता है। इस कीड़े की मादा पतंगा अपने जीवन काल में सामान्य परिस्थितियों में लगभग 200-250 अंडे देती है। अंडे एक-एक करके पत्तियों की निचली सतह पर दिए जाते हैं। चपटे एवं अर्धगोलाकारिय इन अण्डों का रंग सफ़ेद होता है। अंडविस्फोटन होने में चार से छ: दिन लग जाते  हैं. इस कुंडलक की नवजात सुंडियां पूर्ण रूपेण विकसित होने के लिए अपने जीवनकाल में पांच बार कांजली उतारती हैं। भोजन की उपलब्धता व् मौसम की मेहरबानी मुताबिक ये सुंडियां पूर्ण विकसित होने के लिए दो से चार सप्ताह का समय लेती हैं। हलके हरे रंग की यह सुंडी पूर्ण विकसित होने पर दो इंच तक लम्बी हो जाती है. प्युपेसन या तो पत्तों की निचली सतह पर या फिर पत्तों के मुड़े हुए किनारों के अंदर। प्युपेसन जमीन पर पड़े पौधों के मलबे में भी होती है। इस कीट की यह प्युपेसन अवधि आठ-दस दिन की होती है।
हमारे फसलतंत्र  में इस कीट के अंडे व् नवजात सुंडियों को खाने के लिए लेडी बीटल की दर्जनों, कराईसोपा की दो व् मांसाहारी बुग्ड़ों की दस प्रजातियाँ मौजूद रहती हैं। इस कीट की सुंडियों से अपना पेट भरने वाले कम से कम आठ किस्म के तो हथजोड़े ही किसान कपास के खेतों में देख चुके हैं। इस कीट के पतंगों को हवा में गुछ्ते हुए लोपा व् डायन मक्खियों को किसान स्वयं अपनी आँखों से देख चुके हैं। इस कीट के अण्डों में अपने बच्चे पलवाने वाली दुनिया भर की सम्भीरकाएं भी हमारे फसलतंत्र में पाई जाती हैं। कपास के खेतों में मकड़ियां भी इस कीट को खाते हुए किसानों ने देखी हैं।
किसानों का कहना है कि जब हमारे खेतों में कीट नियंत्रण के लिए कीटनाशकों के रूप में इतने सारे कीट प्राकृतिक तौर पर पाए जाते हैं तो हमें बाज़ार से खरीद कर कीटनाशकों के इस्तेमाल की आवश्यकता कहाँ है?

Sunday, August 14, 2011

कपास में पत्ता-लपेट सुंडी

कपास की फसल में पाई जाने वाली यह पर्णभक्षी पत्ता-लपेट सुंडी है तो एक नामलेवा सा कीड़ा पर भारत के सभी कपास उगाऊ क्षेत्रों में पाया जाता है. पर यह छिटपुट की सुंडी भी कभी कभार किसानों को नानी याद दिला देती है। अंग्रेजी में इस कीड़े को Cotton leaf-roller कहते हैं। कीट वैज्ञानिक इसे वैज्ञानिक भाषा में Lepidoptera वंशक्रम के Pyralidae परिवार की Sylepta derogata कहते हैं।
          इस कीट के पतंगें माध्यम आकार के तथा पीले से पंखों वाले होते हैं। इन पंखों पर भूरे रंग की लहरिया लकीरें होती हैं। पतंगे के सिर व् धड़ पर काले व् भूरे निशान होते हैं। पूर्ण विकसित पतंगे की पंखों का फैलाव लगभग 28 से 40 मि.मी. होता है। अन्य पतंगों की तरह ये पतंगें भी निशाचरी होते हैं। रात के समय ही मादा पतंगा एक-एक करके तकरीबन 200 -300 अंडे पत्तों की निचली सतह पर देती है। इन अण्डों से चार-पांच दिन में शिशु सुंडियां निकलती हैं। ये नवजात सुंडियां अपने जीवन के शुरुवाती दिनों में तो पत्तियों की निचली सतह पर भक्षण करती हैं।पर बड़ी होकर ये सुंडियां पत्तियों को किनारों से ऊपर की ओर कीप के आकार में मोड़ती हैं तथा इसके अंदर रहते हुए ही पत्तियों को खुरच कर खाती हैं। ये सुंडियां अपने वृद्धिकाल में छ: या सात बार कांजली उतारती हैं। इस कीट की यह लार्वल अवस्था लगभग 15 -20 दिन की होती है. यह कीड़ा अपनी प्यूपल अवस्था पौधों पर या फिर इन मुड़ी हुई प्रोकोपित पत्तियों के अंदर ही या फिर जमीन पर पौधों के मलबे में पूरी करता है। इस कीड़े को अपना ये प्यूपल-काल पूरा करने में आठ-दस दिन लग जाते हैं। इस कीट के प्रौढ़ सप्ताह भर जीवित रहते हैं। अपना जीवन सफल बनाने के लिए एक सप्ताह के अंदर-अंदर ही इन प्रौढ़ नर व् मादाओं को मधुर-मिलन भी करना होता है तथा मादाओं को अंड-निषेचन भी करना होता है।
खाने और खाए जाने  के इस स्वाभाविक काम में इन्हें भी खाने वाले अनेकों कीट कपास की फसल में पाए जाते हैं। कातिल बुग्ड़े, छैल बुग्ड़े, सिंगू बुग्ड़े, दिद्दड़ बुग्ड़े, बिंदु बुग्ड़े व् दस्यु बुग्ड़े इस कीट की सुंडियों का खून व् अण्डों का जीवन-जूस पीते हैं। विभिन्न प्रकार की लेडी बीटल इसके अण्डों व् तरुण-सुंडियों का भक्षण करती हैं। लोप़ा मक्खियाँ इसके प्रौढ़ों का शिकार करती हैं। हथजोड़े के प्रौढ़ एवं बच्चे इस कीट की सुंडियों का भक्षण करते हैं। कोटेसिया नामक सम्भीरका इस कीट की सुंडियों के पेट में अपने बच्चे पालती है।

Friday, August 12, 2011

तुरंगी ततैया!! -एक परजीव्याभ कीटनाशी

          तुरंगी ततैया एक परजीव्याभ कीट हैं जो पर्यावरण की दृष्टि से हमारे लिए खास महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इनका जीवनयापन व् वंशवृद्धि दुसरे कीटों के जीवन की कीमत पर निर्भर करता है यानिकी ये तुरंगी ततैया हमारी फसलों में कीटनाशियों वाला काम हमारे लिए मुफ्त में करते हैं. अंग्रेजों द्वारा Ichneumon wasps पुकारे जाने वाले इस कीट की ज्यादातर प्रजातियाँ अपने अंडे Lepidoptera कुल की सुंडियों के शरीर पर देती हैं. इन अण्डों से निकले इनके लार्वा इन सुंडियों को खाकर ही पलते-बढ़ते हैं. इनके खाने का सलीका भी गज़ब का होता है. शुरुवात में इल्लियाँ अपनी आश्रयदाता सुंडियों के किसी भी महत्वपूर्ण अंग को नही खाती. बल्कि ये सुंडियों के वसा-ऊतक खाकर ही अपना गुज़ारा करती हैं. पूर्ण विकसित होने पर ही ये सुंडियों के महतवपूर्ण अंगों को खाना शुरू करती हैं. अत: आश्रयदाता सुंडियां परजीव्याभित होने पर कमजोर हो जाती हैं व् इनका विकास धीमा पड़ जाता है और अंतत: इनकी मौत हो जाती है.
 -- वैसे तो इस कीट की विश्वभर में हजारों प्रजातियाँ पाई जाती हैं जो रंग-रूप में एक-दुसरे से भिन्न होती हैं. पर इस कीट की सभी प्रजातियों की मादाओं के पेट के सिरे पर एक लम्बा व् पतला अंडनिक्षेपक होता है. धागेनुमा लम्बे एंटीने, पतली कमर, पारदर्शी पंख व् लम्बा व् पतला अंडनिक्षेपक ही इस कीट की पहचान को आसान बनाते हैं. पर अफ़सोस है, आज कल हरियाणा में कपास की फसल में ये तुरंगी ततैया इका-दुक्का ही दिखाई देती है.



Sunday, August 7, 2011

कपास में चेपा !!

हरियाणा के किसान इस रस चूसक कीट को अळ व् माँहू के नाम से भी पुकारते हैं. अंग्रेज इसे aphid कहते हैं. हरियाणा प्रान्त में कपास की फसल में यह कीड़ा अगस्त के महीने में नजर आने लगता है व् फसल की अंतिम चुगाई तक बना रहता है. इस कीट के अर्भक एवं प्रौढ़ पौधों की फुंगलों तथा तरुण पत्तियों की निचली सतह से रस चूसते हैं. इनके अधिक ग्रसन से पौधों की जीवन शक्ति कमजोर हो जाती है. परिणामस्वरूप पौधे निस्तेज हो जाते हैं. ग्रसित पत्तियां प्राय: हरिमाहीन हो जाती हैं और ऊपर की ओर मुड़ जाती हैं तथा अंत में सुख भी जाती हैं. इसके अलावा पत्तियों एवं फुंगलों पर इन कीड़ों द्वारा छोड़े गये मधुरस पर कला कवक रोग भी पनपता है जो पौधों की भोजन निर्माण प्रक्रिया में बाधा उत्पन करता है.
               इस कीट के मुखांग पौधे के विभिन भागों से रस चूसने के मुताबिक ही बने होते हैं. इस कीड़े के शारीर के पिछले हिस्से पर दो सिंगनुमा अंग होते हैं, जिनसे ये कीट मोम्मिया स्राव निकलते हैं. पतली एवं लम्बी टाँगें होने के बावजूद भी ये कीट तेज़ी से नही चल पाते, बल्कि एक जगह पड़े-पड़े ही पौधों का रस चूसते रहते हैं. वैसे तो इस कीड़े के अर्भक एवं प्रौढ़ दोनों ही अनिषेचित रूप से प्रति दिन आठ से बाईस अर्भक पैदा करते है पर शरद ऋतु के प्रोकोप से बचने के लिए चेपे की प्रौढ़ मादाएं, जमीन पर तरेड़ों में निषेचित अंडे देती हैं. बसंत ऋतु में जाकर अंडविस्फोटन होता है और इनसे निकलने वाली पंखविहीन मादाएं फिर अनिषेचित प्रजनन शुरू करती हैं. यह अलैंगिक प्रजनन प्रक्रिया बहुत तेज़ होती है. इस कीड़े की अर्भकीय अवस्था लगभग सात से नौ दिन तथा प्रौढीय अवस्था सौहला से बीस दिन की होती है.
यह चेपा कपास के अलावा घिया-तौरी, ईंख, ज्वार, गेहूं, सरसों, मिर्ची, भिंडी व् बैंगन आदि पर भी आक्रमण करता है.
कपास की फसल में फूलने-फलने की एक तरफा छुट तो इस कीड़े को भी प्रदान नही की प्रकृति ने. हमारे यहाँ के कपास-तंत्र में इस कीड़े को खाकर अपना गुज़र-बसर करने वाली दस तरह की लेडी बीटल, दो तरह के कराईसोपा, ग्यारह किस्म की मकड़ियाँ, पाँच प्रकार की सिरफड़ो मक्खियाँ व् भांत-भांत के भीरड़-ततैये किसानों द्वारा मौके पर देखे गये हैं. चेपे को उछाल-उछाल कर खाते हुए सिरफड़ो के मैगट को किसानों ने स्वयं देखा है व् इसकी वीडियो बनवाई हैं. दीदड़ बुग्ड़े के प्रौढ़ एवं शिशु भी इस चेपे का खून पीकर गुज़ारा करते देखे गये हैं। मोयली नामक सम्भीरका को अपने बच्चे इस चेपे के पेट में पलवाते हुए निडाना के रणबीर मलिक ने खुद के खेत में देखा है. बिराने बालक पालने के चक्कर में यह चेपा तो जमाएँ चेपा जाता है. अपने इन लक्षणों एवं काम के कारण यह मोयली भी फसल में उपलब्ध मुफ्त का एक कीटनाशी हुआ. रणबीर मलिक व् मनबीर रेड्हू तो इस मोयली को पपेवा पेस्टीसाइड कहते है. जी, हाँ! पराये पेट पलने वाला पेस्टीसाइड

Friday, August 5, 2011

सांवला मत्कुण

सांवला मत्कुण की गिनती कपास की फसल में हानि पहुचने वाले छिट-पुट कीटों में होती है. इस कीड़े का जिक्र तो कपास के फोहे खराब करने के लिए या घरों में भण्डारण के समय इंसानों को दुखी करने के लिए ज्यादा किया जाता है. कपास की लुढाई के समय इस कीट के प्रौढ़ों व् निम्फों का साथ पिसा जाना, रूई को बदरंग कर देता है. इस कीड़े को अंग्रेज लोग Dusky Cotton bug कहते हैं जबकि कीट- वैज्ञानिक इसे Oxycarenus laetus के नाम से जानते हैं. Hemiptera वंश के इस कीट के कुनबे को Lygaeidae कहा जाता है.
इस कीड़े के प्रौढ़ों का रंग गहरा भूरा होता है. इनके शरीर की लम्बाई बामुश्किल चार-पांच मी.मी. होती है. इस कीड़े के पारदर्शी पंखों का रंग धुंधला सफ़ेद होता है. इसके युवा शिशुओं का पेट गोल होता है. ये निम्फ शारीरिक बनावट में अपने प्रौढ़ों जैसे ही होते हैं पर इस अवस्था में पंख नही होते. चौमासा शुरू होने पर इस कीड़े की सिवासिन मादाएं कपास के अर्धखिले टिंडों में अंडे देती हैं. अर्धखिले टिंडों में फोहों पर ये अंडे एक-एक करके भी रखे जा सकते हैं और गुच्छो में भी. शुरुवात में इन अण्डों का रंग झकाझक सफ़ेद फिर पीला व् अंत में अंड-विषफोटन से पहले गुलाबी हो जाता है. ताप व् आब की अनुकूलता अनुसार इन अण्डों से 5 से 10 दिन में निम्फ निकलते हैं. इनका यह निम्फाल जीवन तकरीबन ३५ से ४० दिन का होता है. इस दौरान ये निम्फ छ: बार कांजली उतारते हैं. इस कीड़े के प्रौढ़ एवं निम्फ, दोनों ही टिंडों में कच्चे बीजों से रस चूसते हैं जिसके परिणामस्वरुप कपास का वजन घटता है और पैदावार में कमी आती है पर खड़ी फसल में यह नुकशान नज़र नही आता. इसीलिए तो हरियाणा में कोई भी किसान इस कीट को काबू करने वास्ते कीटनाशकों का इस्तेमाल करते हुए प्रयासरत नजर नही आता.
बी.टी.कपास के जरे-जरे में मौजूद जहर के पक्षपाती होने के कारण कब कौनसा रस चुसक कीट माईनर से मेजर बन बैठे, कहा नही जा सकता?








तम्बाकूआ-सुंडी

प्रौढ़ पतंगा 
सुंडी 
तम्बाकूआ-सुंडी सामनी के समय म्हारे हरियाणा में कपास के साथ-साथ अरहर व् डैंचा के पौधों पर दिखाई देने वाला एक पर्ण-भक्षी कीड़ा है।  इस सुंडी को कीट-वैज्ञानिक Spodoptera litura कहते-लिखते हैं। अंग्रेज इसे टोबैको केटरपिलर के नाम से पुकारते हैं. इसके परिवार को Noctuidae व् वंश-क्रम को Lepidoptera कहा जाता है। इस कीड़े का आगमन कपास की फसल में कमोबेस प्राय हर साल ही देखने में आता है। फसल में पत्तों को खा लेना भी नुकशान है तो यह काम इस कीड़े की सुंडियां ही करती हैं। शुरुवाती काल में ये सुंडियां झुण्ड में रहकर पत्ती की निचली सतह खुरच कर खाती हैं। परिणामस्वरूप पत्तियों का ढांचा भर रह जाता है। बाद में ये सुंडियां तितर-बितर हो जाती हैं और रात में अकेली घुमने लगती हैं। अब ये पत्तों के अलावा कलियों, फूलों, पंखुड़ियों को भी खा जाती हैं। ये सुंडियां खा-पीकर 3.5 से 4.0 सै.मी. तक लम्बी हो जाती हैं। इनका शरीर मखमली काला होता है जिसकी पीठ पर पीली-हरी धारियाँ होती हैं व् अगल-बगल में सफेद बैंड होते हैं। इस कीड़े के ये भूरे-सुनैहरी प्रौढ़ बड़े सुन्दर दिखाई देते हैं। प्रौढ़ पतंगे की लम्बाई 22 मि.मी. व् इसके पंखों का फैलाव तक़रीबन 40 मी.मी. होता है। इस कीड़े की प्रौढ़ मादाएं अपने जीवन काल में 1000 -1200 अंडे देती हैं। ये अंडे पत्तियों की निचली सतह पर किनारों के पास गुच्छों में दिए जाते हैं। प्रत्येक गुछे में 70 -100 अंडे होते हैं। अण्डों के ये गुछे पीले रंग की गंदगी और रोओं से ढके रहते हैं।  इन अण्डों से 4-5 दिन में इस कीट की सुंडियां निकलती हैं। ये सुंडियां छ: अंतर्रुपों से गुजरते हुए प्युपेसन में जाने तक लगभग 15 से 30 दिन का समय ले लेती हैं। इस कीट की प्यूपल अवस्था जमीन के अन्दर 10 -12 दिन में पूरी होती है। इस पतंगे का प्रौढीय जीवन सात-आठ दिन का होता है। कपास के साथ-साथ तम्बाकू, अरंड, चना, मिर्च, बंदगोभी, फूलगोभी , मूंगफली. अरहर व् दैंचा आदि के पौधों पर भी बखूबी फलती-फूलती पाई जाती है, ये तम्बाकूआ-सुंडी। 
भक्षण
इस कीड़े की विभिन्न अवस्थाओं के सहारे अपना जीवन निर्वाह करने वाले दुनिया भर के मांसाहारी कीट भी हरियाणा के कपास परितंत्र में मिल जायेंगे। निडाना के किसानों ने अपने कपास के खेतों में कई किस्म की लेडी बीटल देखली जो इस कीट के अंडे व् तरुण सुंडियां खाकर जीवन की गाड़ी को आगे बढाती हैं। इन्होने इनके अण्डों व् सुंडियों का जीवन रस पीते हुए कातिल बुग्ड़े, सिंगू बुग्ड़े तथा इनके बच्चे देख लिए। इस कीट के प्रौढ़ पतंगों का उड़ते हुए शिकार करती लोपा-मक्खी व् डायन-मक्खी मौके पर देख चुके हैं। ये किसान. इस तम्बाकूआ-सुंडी को परजीव्याभित करते ब्रेकन सम्भीरका व् इसके कोकून देख चुके हैं। इन कोकुनो से कोटेसिया को बाहर निकलते भी निडाना के किसान अपनी आँखों से देख चुके हैं। इन तम्बाकूआ-सुंडियों का भक्षण करते हुए नौ किस्म के हथजोड़े(Praying mantis) भी किसान देख चुके हैं। जब किसानों ने एक हथजोड़े के साथ तीन तम्बाकूआ-सुंडियों को शीशी में रोक दिया तो इन तीन पर्णभक्षी सुंडियों ने मिल कर इस मांसाहारी कीट हथजोड़े को खा लिया. शायद अपनी जान बचाने के लिए।
कपास के खेतों में मकड़ियां भी इस कीट को खाते हुए किसानों ने देखी हैं।
किसानों का कहना है कि जब हमारे खेतों में कीट नियंत्रण के लिए कीटनाशकों के रूप में इतने सारे कीट प्राकृतिक तौर पर पाए जाते हैं तो हमें बाज़ार से खरीद कर कीटनाशकों के इस्तेमाल की आवश्यकता कहाँ है?
       अब एक सवाल आपसे? जवाब चाहिये।
                         यह पर्णभक्षी कीड़ा हमारे यहाँ कपास की फसल में सितम्बर व् अक्तूबर के महीनों में क्यों आता है जबकि इसके खाने लायक पत्ते तो कपास की फसल में शुरुआत से ही होते हैं।





Thursday, August 4, 2011

कपास में चुरड़ा -एक शाकाहारी कीट!




अंग्रेजों द्वारा थ्रिप्स कहा जाने वाला यह चुरड़ा कपास की फसल में पाया जाने वाला एक छोटा सा रस चुसक कीट है. कीट- वैज्ञानिक इसे Thrips tabaci के नाम से पुकारते हैं. बनावट में चरखे के ताकू जैसा यह कीट पीले-भूरे रंग का होता है. इस कीट की मादा अपने प्रजनन-कल में 4-6 प्रतिदिन के हिसाब से 50-60 अंडे देती है. इन अण्डों की बनावट इंसानी गुर्दों जैसी होती है. इन अण्डों से ताप व् आब के मुताबिक तीन से आठ दिनों में शिशु निकलते हैं. इनका यह शिशुकाल सात-आठ दिनों का होता है तथा प्युपलकाल दो से चार दिन का. इस कीट के निम्फ व् प्रौढ़ पत्तियों की निचली सतह पर नसों के आस-पास पाए जाते हैं. इस कीट के शिशु एवं प्रौढ़ कपास के पौधों के पत्तों की निचली सतह को नसों के आस-पास खुरच कर रस पीते हैं. परिणामस्वरूप पत्तियों की निचली सतह चांदी के समान चमकने लगती है तथा उपरवाली सतह बादामी रंग की हो जाती है. ज्यादा प्रकोप होने पर पत्तियां ऊपर की तरफ मुड़ने लगती हैं. अंत में ये प्रकोपित पत्तियां सुख कर गिर भी जाती हैं.
            यह कीड़ा कपास की फसल के अलावा प्याज़, लहसुन व् तम्बाकू आदि फसलों पर भी अपना जीवन निर्वाह व् वंश वृद्धि करता है. पर कपास की फसल में चुरड़ा अंकुरण से लेकर चुगाई तक बना रहता है. वो अलग बात है कि इस कीट की संख्या आर्थिक हानि पहुचाने के स्तर यानिकि दस निम्फ प्रति पत्ता पर कभी-कभार ही पहुँचती है. इस का मुख्य कारण कि इस कीट को खाने वाले कीड़े भी कपास कि फसल में लगातार बने रहते हैं. परभक्षी-मकड़िया जूं, छ: बिन्दुवा-चुरड़ा, दिद्दड़-बुग्ड़ा व् एन्थू-बुग्ड़ा इस चुरड़े का खून चूस कर गुज़ारा करने वालों में प्रमुख हैं. भान्त-भान्त की लेडी बीटल व् इनके बच्चे भी इस चुरड़े को खा कर अपना पेट पालते हुए कपास के खेत में पाए जाते हैं।
जिला जींद में किसानों द्वारा कपास में नलाई-गुड़ाई होने पर या तापमान में गिरावट होने पर इस कीट की संख्या में घटौतरी दर्ज की गयी है.

Saturday, July 30, 2011

प्राकृतिक कीटनाशी - बिन्दुआ बुग्ड़ा

बिन्दुआ बुग्ड़ा एक मांसाहारी कीट है जो अपना गुजर-बसर दुसरे कीटों का खून चूस कर करता है। कांग्रेस घास पर यह कीट दुसरे कीटों की तलाश में ही आया है। कांग्रेस घास के पौधों पर इसे मिलीबग, मिल्क-वीड बग़जाय्गोग्राम्मा बीटल आदि शाकाहारी कीट व इनके शिशु व अंडे मिल सकते है। इस घास पर इन्हें खून पीने के लिए इन शाकाहारी कीटों के अलावा कीटाहारी कीट भी मिल सकते है। इन सभी मध्यम आकार के कीटों का खून चूस कर ही बिन्दुआ बुग्ड़ा व इसके बच्चों का कांग्रेस घास पर गुज़ारा हो पाता है।
स्टिंक बग़ की श्रेणी में शामिल इस बिन्दुआ बुगडा को अंग्रेज "two spotted bug" कहते हैं। कीट वैज्ञानिक इसे द्विपदी प्रणाली के मुताबिक "Perillus bioculatus" कहते हैं। इस बुग्ड़े के परिवार का नाम "Pentatomidae" है तथा वंश-क्रम "Hemiptera" है.
बिन्दुवा बुग्ड़े का निम्फ

अंडे 
इन बिन्दुआ बुग्ड़ों का शरीर चौड़ा व शिल्ड्नुमा होता है। इनकी पीठ पर ध्यान से देखे तो अंग्रेजी का वाई अक्षर भी नज़र आ जाता है. इनके प्रौढ़ों के शरीर की लम्बाई 10 से 12 मिमी तक होती है। इनके निम्फ 8 से 9 मिमी लंबे होते है. निम्फों के शरीर का रंग पीला-पीला या लालिया संतरी होता है. इस बुग्ड़े की प्रौढ़ मादा मधुर मिलन के बाद प्राय: दो दर्जन अंडें पत्तियों के उपरली सतह या टहनियों पर देते हैं. इन अण्डों को वे दो पंक्तियों में एक-दुसरे से सटा कर रखते हैं. इन अण्डों से छ:-सात दिन में निम्फ निकलते है. अंडे से प्रौढ़ विकसित होने में तक़रीबन 25 -30 दिन का समय लगता है.
बिन्दुवा बुग्ड़े के अंडे से निकला- बंगिरा
इंसानों द्वारा छेड़े जाने पर ये बिन्दुआ बुग्ड़े बेचैन करने वाली तीक्ष्ण गंध छोड़ते हैं। इस गंध रूपी हथियार को ये कीट दुसरे कीटों से अपना बचाव करने में भी इस्तेमाल करते हैं। आलू की फसल को नुकशान पहुचने वाली कोलोराडो बीटल के तो ग्राहक होते है ये बिन्दुआ बुग्ड़े। इस बुग्ड़े के नवजात पहली कांजली उतारने तक तो पौधों का जूस पीकर गुजारा करते हैं. इसके बाद तो ताउम्र मांसाहारी रहते हैं. कीट वैज्ञानिक बताते हैं कि ये निम्फ प्रौढ़ विकसित होने तक तक़रीबन इस बीटल के 300 अंडे, 4 लार्वे व् 5 प्रौढ़ डकार जाते हैं. प्रौढ़ जीवन जीने के लिए प्रतिदिन दो के लगभग बीटल के लार्वा तो मिलने ही चाहियें. इसी जानकारी का फायदा उठाकर कीटनाशी उद्योग द्वारा इन बुग्ड़ों को भी जैविक-नियंत्रण के नाम पर बेचा जाने लगा है। साधारण से साधारण जानकारी को भी मुनाफे में तब्दील करना कोई इनसे सीखे। साधारण ज्ञान को विज्ञानं बनाकर तथा फिर इसे तकनिकी बताकर ये कीटनाशी उद्योग किसानों को तो बेवकूफ बना सकते है पर प्रकृति को नही. जिला जींद के निडानी गावं की खेत पाठशाला के किसानों संदीप व् राजेश तथा खेती विरासत मिशन, जैतों(पंजाब) के गुरप्रीत, अमनजोत, बलविन्द्र व् अमरप्रीत ने कीट-कमांडो रणबीर मलिक व् कप्तान के नेतृत्त्व में कांग्रेस घास पर मेक्सिकन बीटल के गर्ब का खून चूसते हुए इस बुग्ड़े के निम्फ को मौके पर देखा व् फोटो खीचा. इन्होने इस बुग्ड़े के प्रौढ़ एवं निम्फ की मेक्सिकन बीटल के बच्चे का परभक्षण करते हुए विडिओ तैयार की. इसी गावं के खेतो में रजबाहे के किनारे खड़े कांग्रेस घास के पत्तों पर कीट-कमांडो रणबीर मलिक ने इस बिन्दुवा बुग्ड़े के अण्डों से एक परजीव्याभ निकलते देख लिया. यहाँ के किसानों ने मिलीबग के परजीव्याभों अंगीरा, जंगिरा व् फंगिरा की तर्ज़ पर बंगिरा नाम दिया है.
किसी ने सच ही कहा है, "जी का जी बैरी". कांग्रेस घास को उपभोग करती है मेक्सिकन बीटल और उसके बच्चे. बिन्दुआ बुग्ड़े मेक्सिकन बीटल और उसके बच्चे को खा-पीकर गुजारा करते है. बंगिरा अपने बच्चे इन बिन्दुआ बुग्ड़ों के अण्डों में पालता है.
काश! हरियाणा के सभी किसान इस प्राकृतिक कीटनाशी को पहचानते होते तो वे भी रणबीर, मनबीर व् इनके साथियों की तरह कीटनाशी मुक्त खेती कर रहे होते.

Wednesday, July 27, 2011

सड़ांधला हरिया:- कपास में एक बुग्ड़ा!



सड़ांधला हरिया कपास के खेत में अक्सर दिखाई दे जाने वाला एक पौधाहरी बुग्ड़ा है जो पौधों का जीवन-रस पीकर अपना गुजारा करता है व् अपनी वंश-बेल चलाने के प्रयास करता है. इस चक्कर में कपास की फसल को थोडा-बहुत नुकशान भी हो जाये तो, इसे कोंई परवाह भी नही. पर हरियाणा में कपास की फसल में इस कीट ने कभी कोंई नुकशान पहुचाया हो, ऐसी कोंई भी ऍफ़.आई.आर. किसी कीट- वैज्ञानिक ने दर्ज नही करवाई. और तो और इस सड़ांधले बुग्ड़े की गिनती तो कपास के नामलेवा हानिकारक कीटों में भी नही होती. वास्तव में तो यह सड़ांधला हरिया मक्का, सोयाबीन व् कपास समेत किसी भी पौधे का रस चूस कर गुज़ारा कर लेता है. ये बुग्ड़े तना, पत्ते, फुल, फल व् बीज समेत पौधे के किसी भी भाग से रस चूस लेता है. सड़ांधले बुग्ड़े इस काम को अपने नुकीले डंक के कारण ही कर पाते हैं.
कीट वैज्ञानिक इस सड़ांधले बुग्ड़े को नामकरण की द्विपदी प्रणाली के मुताबिक  Acrosternum hilare कहते हैं. इसके परिवार का नाम Pentatomidae व् वंशक्रम का नाम Hemiptera.        
इस बुग्ड़े के प्रौढ़ एवं निम्फ, दोनों ही इनके साथ छेड़खानी होने पर अपने शारीर से दुर्गन्धयुक्त तरल निकालते हैं. शायद इसीलिए इन्हें सड़ांधले बुग्ड़े कहा जाता है. 
अंडे से प्रौढ़ के रूप में विकसित होने के लिए सड़ांधले बुग्ड़े को 30 से 35 दिन का समय लग जाता है. इनका प्रौढीय जीवन 60 दिन के लगभग होता है.
कपास की फसल में इस कीट का भक्षण करते हुए भान्त-भान्त के पक्षियों व् मकड़ियों को जिला जींद के रूपगढ, ईगराह, निडाना, निडानी, ललित खेडा व् भैरों खेडा के किसानों ने अपनी आँखों से देखा है. इन किसानों ने तो इस सड़ांधले बुग्ड़े के अण्डों में अपने बच्चे पलवाते एक महीन सम्भीरका को भी देख लिया.




Monday, March 7, 2011

घूँघटिया कपास (bt cotton) में शहद की देसी मक्खी !!!




जिला जींद के ज्यादातर किसानों की तरह निडाना निवासी पंडित चन्द्र पाल ने भी अपने खेत में एक एकड़ बी.टी.कपास लगा रखी है। इस कपास की फसल में देसी शहद की मक्खियों (Apis indica) ने अपना छत्ता बना कर डेरा जमा रखा है। एक महिना पहले जब पंडित जी ने इस छाते को देखा तो खुशी के मारे उछल पड़ा था। उछले भी क्यों ! चन्द्र पाल ने एक लंबे अरसे के बाद देसी शहद की मक्खियों का छत्ता देखा था, वो भी ख़ुद के खेत में। वह तो यह समझे बैठा था कि फसलों में कीटनाशकों के इस्तेमाल के चलते शहद की इन हिन्दुस्तानी मक्खियों का हरियाणा से सफाया हो चूका है. इसीलिए वह इस विशेष जानकारी को घरवालों पड़ोसियों से बांटने के लिएअपने आप को रोक नहीं पाया था। चाह ऎसी ही चीज होती है। इसी चक्कर में, पंडित जी ने रोज खेत में जाकर इस छत्ते को संभालना शुरू कर दिया। कुछ दिन के बाद उसका ध्यान इस बात की तरफ भी गया कि ये मक्खियाँ इस खेत में कपास के फूलों पर नहीं बैठ रही। मज़ाक होने के डर से उन्होंने हिच्चकते--हिच्चकते अपनी इस बा को गावं के भू.पु.सरपंच रत्तन सिंह से साझा किया. दोनों ने मिलकर इस बात को लगाता ती दिन तक जांचा परखा मन की मन में लिए, रत्तन सिंह ने इस वस्तुस्थिति को अपना खेत अपनी पाठशाला के बाहरवें सत्र में किसानों के सामने रखा। तुंरत इस पाठशाला के 23 किसान डा.सुरेन्द्र दलाल कपास के इस खेत में पहुंचे। आधा घंटा खेत में माथा मारने के बावजूद किसी को भी कपास के फूलों पर एक भी मक्खी नजर नहीं आई। यह तथ्य सभी को हैरान कर देने वाला था। बी.टी.टोक्सिंज, कीटों की मिड-गट की पी.एच.,व कीटों में इस जहर का स्वागती-स्थल आदि के परिपेक्ष में इस तथ्य पर पाठशाला में खूब बहस भी हुई। पर कोई निचोड़ ना निकाल सके. हाँ! डा.सुरेन्द्र दलाल ने उपस्थित किसानों को इतनी जानकारी जरुर दे दी की उसने स्वयं अपनी आँखों से पिछले वीरवार को ललित खेडा से भैरों खेडा जाते हुए सड़क के किनारे एक झाड़ी पर इन देसी शहद की मक्खियों को देखा है। देसी झाड़ के छोटे--छोटे फूलों पर इन मक्खियों को अपने भोजन शहद के लिए लटोपिन हुए देखने वालों में भैरों खेडा का सुरेन्द्र, निडाना का कप्तान पटवारी रोहताश भी शामिल थे। 
   भैरों खेडा के लोगों ने तो शहद की इस हिन्दुस्तानी मक्खी को आखटे के फूलों से शहद इक्कठा करते भरी   दोपहरी में भी देखा है. इस तथ्य को हम विश्लेषण हेतु इंटरनेट के मध्यम से जनता के दरबार में प्रस्तुत कर रहे हैं।
इस मैदानी हकीकत से निडाना में अनावरण यात्रा पर आयी कृषि-अधिकारीयों व्  वैज्ञानिकों की टीम भी रूबरू हुई. पर देसी शहद की मक्खियों के इस अनेपक्षित व्यव्हार की व्याख्या किसी के पास नही थी.
                                                                                                                                               

Friday, March 4, 2011

मुफ्त के कीटनाशी - लेडी बीटल

मिलीबग व् चेपे की कुशल शिकारी के रूप में जिला जींद की धरती पर नौ किस्म की बुगडी पायी गयी है. कोक्सीनेलिड्स कुल की इन बुगड़ीयों
के प्रौढ़ भी मांसाहारी अर् इनके बच्चे(GRUB ) भी मांसाहारी. गजब की किसान मित्र है ये लेडी बीटल.। यूरोपियन लोग इन्हें लेडिबीटल या लेडीबग के नाम से पुकारते हैं ।    इनके पंखों की चमक चूड़ियों जैसी होने के कारण  स्थानीय लोगों में कुछ इन्हें मनयारी  कहते हैं  जबकि अन्य इनके पंखों का रंग जोगिया होने के कारण इन्हें जोगन के नाम से पुकारते हैं. कवि महोदय इन कीटों को सोन-पंखी भंवरे के रूप में अलंकृत करते है. निडाना गावं की महिला किसानों ने भी  अपनी यादगारी सुविधा एवं पहचान सुगमता के लिए इन नौ लेडी बीटलों के नाम  लपरो(प्रौढ़, डिम्बक),सपरो(प्रौढ़), चपरो(प्रौढ़), रेपरो(प्रौढ़), हाफ्लो(गर्ब}, ब्रह्मों(प्रौढ़), नेफड़ो(प्रौढ़), सिम्मड़ो(गर्ब) और क्रिप्टो(गर्ब). इन सभी लेडी बीटलों के बालिग व शिशु जन्मजात मांसाहारी कीट होते हैं । इनके भोजन में कीटों के अंडे ,तरुण सुंडियां ,अल या चेपा ,मिलीबग ,चुरडाः ,तेला ,सफ़ेद मक्खी,फुदका आदि अनेक हानिकारक कीट शामिल होते हैं । जिन्हें ये बड़े चाव से खाते हैं । हमारे खेतों में इनकी उपस्तिथि ,कीटनाशकों पर होने वाले खर्च में कटोती करवा सकती है । कीटनाशक चाहे रासायनिक हो या फिर बी.टी.के रूप में जैविक. हम इन लेडी बीटलों को उम्दा किस्म के प्राकृतिक कीटनाशी भी कह सकते हैं क्योंकि ये कीटों को खा कार उनका सफाया करते हैं. यानी कि हमारी फसलों का कीड़ों से बचाव मुफ्त में ही करते हैं जबकि कीटनाशकों पर इसी काम के लिए हमें पैसा खर्च करना पडता है। अतः हम इनकी सही पहचान ,हिफाजत व वंशवृद्धि कर जहाँ खेती के खर्च को घटा सकते हैं वहीं कीटनाशकों के दुष्प्रभावों से मानव स्वस्थ की रक्षा कर बहुत बड़ी समाज सेवा भी कर सकते हैं। 
निडाना की महिला किसानों ने इस गावं की फसलों में पाई गयी इन नौ किस्म की लेडी बीटलों की न केवल अच्छी तरह से पहचान ही की है बल्कि इन्होनें तो लेडी बीटलों के संक्षिप्त इतिहास व् क्रियाक्लापों पर एक गीत भी लिख डाला. इस गीत को वे विभिन्न अवसरों पर गाती भी हैं.
राजपुरा गावं के भू.पु.सरपंच श्री बलवान सिंह लोहान के  नेतृत्त्व में महेंद्र, प्रकाश, नरेश, भीरा आदि किसानों ने काले के खेत में बी.टी.कपास की फसल पर आये एक नये कीड़े मिलीबग को चबाते हुए एक लपरो को मौके पर पकड़ा था व् इसकी वीडियो तैयार की थी. कीड़ों का कीड़ों द्वारा प्राकृतिक नियंत्रण के इस दृश्य को देखकर सभी किसान हैरान थे.