Sunday, January 22, 2012

कुम्हारी-एक कीटनाशी ततैया

 "पतली कमर पर ढुंगे पै चोटी कोन्या !!
सै कुम्हारी पर कुम्हारों आली कोन्या !!"

असल में यह तो भीरड़-ततैयों वाले कुनबे की सै। अपना जापा काढण ताहि यह ततैया चिकनी मिटटी से छोटे-छोटे मटकों का निर्माण करती है। इसीलिए किसानों ने इसका नाम कुम्हारी रख लिया। वैसे तो इस ततैया की दुनिया भर में सैकड़ों प्रजातीय पाई जाती होंगी पर निडाना की कपास व् धान की फसल में तो अभी तक किसानों ने यही एक प्रजाति देखी है। यह कीट एकांकी जीवन जीने का आदि है मतलब समूह की बजाय अकेले-अकेले रहना पसंद करता है। काली, पीली व् गुलाबी छटाओं वाली इस ततैया की शारीरिक लम्बाई तकरीबन 15 -17  मी.मी. होती है। यह सही है कि इस कीट के प्रौढ़ तो फूलों से मधुरस पीकर अपना गुजर-बसर करते हैं पर इनके शिशुओं को अपनी शारीरिक वृद्धि के लिए बिना बालों वाली सुंडियां चाहिए। इसीलिए तो आशामेद होते ही इस कीट की मादा अंडे देने के लिए चिकनी मिटटी के छोटे-छोटे मटकों का निर्माण शुरू करती है। मटकों के लिए घरों से बाहर ऐसी जगह का चुनाव करती है जहाँ ये मटके सूरज के ताप, वायु के वेग और वर्षा की आल से सुरक्षित रह सके। चिकनी मिटटी तलाश कर, उसकी छोटी-छोटी गोलियां बनाती है तथा उन्हें अपने मुहँ और अगली टांगों की सहायता से निर्माण स्थल तक लाती है। इस मादा को एक फेरा पूरा करने में पांच मिनट तथा एक मटका घड़ने में लगभग आधा दिन लग जाता है। इस कपास के पत्ते पर मिटटी तो तीन मटकों के लिए ढ़ो राखी थी पर निर्माण एक का ही कर पाई थी कि फोटों खीचने वालों ने तंग कर दी। मटके घड़ने का काम पूरा करके खेतों में निकलती है यह मादा ततैया। वहां रोयें रहित सुंडियां तलाशती है। एक सुंडी ढूंढने में घंटा लग जाता है। सुंडी मिलते ही अपने डंक द्वारा जहर छोड़ कर उस सुंडी को लुंज कर देती है और उसे मटके में ला पटकती है। प्रत्येक मटके में सात-आठ से दस- बारह सुंडी रखती है। फिर हरेक मटके में अपना एक अंडा रखती है। इसके शिशु इन भंडारित सुंडियों को ही खा-पीकर विकसित होते है। मटके में ही प्युपेसन अवस्था पूरी करते हैं। मटके में अंड-निक्षेपण के बाद यह मादाएं मटके के मुहँ को बंद करना नही भूलती। आवासीय निर्माण के दौरान और बाद में भी ये ततैया मटकों के पास विश्राम नहीं करती। इस ततैया के नर मधुर-मिलन के अलावा दूर से ही सही, इन मटकों क़ी चौकीदारी तो करते हैं।
हमारी फसलों में सुंडियों के नियंत्रण के लिए बड़े काम क़ी हैं ये कुम्हारी। जिस तरह से कुम्हारों ने इस कीट से मटके बनाना सीखा ठीक उसी तरह से किसानों को इस कीट से कीट नियंत्रण के पहाड़े सिखने आवश्यकता है। और हमेँ किसानों के लिए व्यापक पैमाने पर कीट साक्षरता अभियान चलाने क़ी।

Wednesday, January 18, 2012

लाल मटकू - एक कीटनाशी बुग्ड़ा

कपास की फसल में कच्चे बीजों से तेल पीने वाला एक बदबूदार कीड़ा है लाल बनिया जिसका शिकार करने वाले कीड़े इस प्रकृति में बहुत कम हैं. इन्हीं में से एक कुशल शिकारी है यह लाल- मटकू जी हाँ! सरसरी तौर पर देखने से तो यह बुग्ड़ा भी लाल बनिये जैसा ही नजर आता है. आये भी क्यों नही? दोनों का वंशक्रम Heteroptera व् कुनबा Pyrrhocoridae एक ही जो ठहरा. कीट विज्ञानियों की बोली में इस लाल- मटकू का नाम है: Antilochus cocqueberti. माध्यम आकार के इस बुग्ड़े का रंग कहीं से लाल और कहीं से काला होता है पर ये दोनों रंग होते है खूब चटकीले. इसके शारीर की बनावट लम्बौत्रिय अंडाकार होती है. इनके शारीर की लम्बाई अमूमन 16 -17 सै.मी. होती है. इनके निम्फ भी देखने में इन जैसे ही होते हैं सिवाय पंखों के. इस बुग्ड़े के निम्फ व् प्रौढ़ दोनों ही लाल बनिये का खून पीकर अपना गुजर-बसर व् वंश वृद्धि करते हैं. इसके अलावा हमारी फसलों में कभी कभार दिखाई देने वाले Alydidae कुल के बुग्ड़ों का भी बखूबी शिकार कर लेते हैं.

 इस लाल मटकू  का प्रौढ़ जीवन काल तकरीबन दो से छ: माह का होता है, इस दौरान इसकी प्रौढ़ मादा औसतन 10 -12 बार अंड-निक्षेपण करती है. एक बार में 60 से 70 अंडे देती है. इस तरह से अपने जीवन काल में 600 - 700 अंडे देती है. अंड निक्षेपण से लेकर प्रौढ़ विकसित होने तक इन्हें दिवस अवधि अनुसार 45 से 90 दिन तक का समय लग जाता है. अपना जीवन पूरा करने के लिए इस कीड़े को 250 से भी ज्यादा लाल बनियों का खात्मा करना पड़ता है. यह भी ध्यान देने योग्य है कि इस लाल मटकू के निम्फ लाल बनिये के निम्फों का तथा प्रौढ़ प्रौढ़ों का शिकार करना पसंद करते हैं.
लाल मटकू के अंडे 
वैकल्पिक मेजबानों की उपलब्धता व् इसकी अति सक्रियता के कारण कपास कि फसल में इस लाल बनिये को कीटनाशकों के इस्तेमाल से काबू करना नामुमकिन कार्य है. ऐसे हालात में प्रकृति प्रदत यह लाल-मटकू कपास की फसल में लाल बनिये को काबू रखने के लिए किसानों की सहायता कर सकता है. बशर्ते कि हम इसे अच्छी तरह से पहचानने लग जाये. 

Tuesday, January 17, 2012

तरखान ततैया - कीटनाशी ततैया!



तरखान ततैया ! जी हाँ, सुरंग बना कर बाथू और खड़बाथू के तने में अपना जापा काढने वाली इस ततैया को जिला जींद के निडानी, निडाना, ईगराह, ललित खेडा व् बराह कलां के किसान तरखान-ततैया व् खातिन आदि नामों से जानते हैं। अंग्रेज और हमारे कीट-वैज्ञानिक इस कीड़े को किस नाम से पुकारते हैं, हमें नही मालूम। नाम की तो छोड़ो, हमें तो इस कीड़े के खानदान और खरने तक के बारे में भी जानकारी नही। पर काम गजब का करती है यह ततैया। हमारी फसलों में कीट प्रबंधन का काम अर वो भी बिना कीटनाशकों के इस्तेमाल के। इसका यह काम तो हमने निडानी के कृष्ण की कपास की फसल में अपनी आँखों से देखा है।  रंग-रूप व् झामा से सिर के कारण यह काली सी ततैया इंजनहारियों वाले खानदान के मुकाबले भीरड़ों के ज्यादा नजदीक प्रतीत होती है। पतली कमर वाली सुन्दर-सलौनी ये ततैये देखने में तो शरीफ व् नाजुक सी लगती हैं, लेकिन काम में बेजोड़ मेहनती व् चुस्त होती हैं। इनका सिर व् माथा शरीर की तुलना में काफी बड़ा होता है तथा इनके जबड़े और भी मजबूत। तभी तो बथवे की डाली में सुरंग का निर्माण कर पाती हैं। दिन-रात मेहनत करके ही बथवे के तने में सुराख़ कर पाती और फिर इसके अंदर की लुगदी को इधर-उधर ठिकाने लगाकर अपने बच्चों के लिए दर्जनों प्रकोष्ठों का निर्माण करती है। इनमें फसलों से छोटे-छोटे कीट उठाकर लाती है। उन्हें जहरीले प्रोटीनों की सहायता से लुंज करती है। और 10-12 की संख्या में हर प्रकोष्ट में रख देती है। फिर सभी प्रकोष्ठों एक-एक कर के अंडे देती है। इसके नवजात इन भंडारित कीड़ों को खा-पीकर ही बड़े होते हैं और इन प्रकोष्ठों में ही पुपेश्न करते है। प्युपेसन के बाद यह कीट प्रौढ़ के रूप में विकसित होकर स्वंतंत्र जीवन जीने के लिए एक-एक करके बथुवे के तने से बहार निकलते हैं. नर के साथ  मधुर मिलन के बाद सारा काम मादा ततैया ही करती है। नर ततैया तो बथुवे की डाली या आस-पास बैठ कर इस सुरंग की पर नजर रखता है ताकि मादा की इस बेजोड़ मेहनत पर कोई अन्य ततैया पानी न फेर जाये. महिला सशक्तिकर्ण की इस नायब प्रतीक ततैया को शायद इसीलिए खातिन के नाम से पुकारना जायज मानते हैं निडाना-निडानी के किसान।