Saturday, August 25, 2012

श्यामो: एक परजीव्याभ संभिरका

श्यामो एक परजीव्याभ संभिरका है जो अपने बच्चे पराये पेट पलवाती हैं। एकांकी जीवन जीने वाली इन संभिरकाओं के शारीर का रंग काला होता है पर इनकी झिलीदार पंखें नीली धात मारती हैं। इनके शारीर की लम्बाई लगभग 2-3 सै.मी. होती है। इनका वंशक्रम Hymenoptera व् कुणबा Scoliidae है। प्रौढ़ लीलो आमतौर पर फूलों पर ही दिखाई देती हैं। इनको अपना गुज़र-बसर करने के लिए मधुरस की आवशयक्ता होती जो इन्हें फूलों में मिलता है। पर इनके बच्चों को तो अपनी शारीरिक वृद्धि के लिए केवल जिंदा कीटों का मांस ही चाहिए। ये ततैया अपने बच्चों के लिये ना तो किसी किस्म छत्ता बनाती हैं और ना ही उनके लिये कीट ढूंढ़ कर लाती हैं। इस काम के लिए तो इन्होने एक नया ही तरीका अपना रखा है। इस कीट की मादा ततैया जमीन के साथ-साथ मंडराते हुए ऐसे कीटों की तलाश में रहती है जिनके पेटों में अपने बच्चे पलवा सके। और ये मिलते हैं इन्हे खाद , गोबर व् लकड़ी के ढेरों के पास। जी, ये होते हैं भान्त-भान्त के गुबरैलों के गर्ब जो जमीन के अंदर रहते हुए अपना गुज़ारा करते हैं। गुबरैलों के गरबों तक इन्हें या तो जमीन खोदनी पड़ती है या फिर गरबों द्वारा निर्मित सुरंगों का सहारा लेना पड़ता है। मन माफिक गर्ब मिलते ही ये ततैया उसको डंक मार कर लुंज कर देती है। फिर इसके पास या उपर अपना एक अंडा रख देती है। इस अंडे से निकला बच्चा इस लुंज गर्ब को ही खा पीकर बड़ा होता है। इस नवजात को मालूम होता है कि लुंज गर्ब का कौनसा हिस्सा पहले खाना होता है ताकि भोजन के रुप में उपलब्ध इस गर्ब को गलने-सड़ने से बचाया जा सके। एक मादा श्यामो अपने जीवनकाल में सैंकड़ो अंडे देती है। इसका मतलब इससे भी ज्यादा सफ़ेद लटों का खात्मा। गजब का प्राकृतिक कीट नियंत्रण। पर सब कुछ पर्दे के पीछे, जमीन के अंदर होता है। हमे नजर नही आता। पर इससे क्या फर्क पड़ता है। जमीनी हकीक़त तो अपनी जगह हकीकत ही रहेगी। "कीट नियंत्रनाय कीटा हि: अस्त्रामोगा11"  अगर किसान इन कीटों को पहचानने लग जाये, समझने लग जाये व् परखने लग जाये तो निश्चित तौर पर हमारे खाने में, पानी में तथा हवा में जहर कम होगा। कीट नियंत्रण में किसानों के लगने वाले समय, पैसे व् मेहनत की बचत होगी।

Thursday, August 23, 2012

मुद्रो - एक कीटनाशी कीट

प्रौढ़ मुद्रो 

 जारजटिया वंश से तालुक रखने वाला यह कीटभक्षी निडाना के खेतों में सुबह या शाम को फसलों के ऊपर उड़ता दिखाई देता है। दे भी क्यों नही! मुद्रो को उड़ते हुए ही शिकार जो करना पड़ता है। शिकार अपने हाण के या अपने से छोटे कीट का ही आसानी से किया जा सकता हैं। इनके भोजन में भान्त-भान्त की पौधाहारी सुंडियों के प्रौढ़ पतंगे एवं तितलियाँ, भान्त-भान्त के भूंड एवं भँवरे, भुनगे -फुदके आदि कीट शामिल होते हैं। जो फंस गया उसी से पेट भर लिया। मतलब भोजन के मामले में मुद्रो नकचड़ी बिलकुल नही होती। चलताऊ नजर से देखने पर तो मुद्रो के ये प्रौढ़ बने-बनाये लोपा मक्खी जैसे ही दिखाई देते हैं। पर जरा गौर से निंगाहते ही इसके ढूंढ़रूदार लम्बे-लम्बे एंटीने नजर आने लगते हैं। जो लोपा मक्खियों से मेल नहीं खाते। आराम करते हुए इनका बैठने का ढंग भी लोपा मक्खियों से मेल नही खाता। एंटीने व् पंख टहनी के सामांतर तथा शरीर लम्वत- शिकारियों से बचने के लिए लाजवाब छलावरण
                        यह कीट अपने अंडे पौधों की डालियों पर या फिर जमीन पर ड्लियों के निचे रखते हैं। मौसम की अनुकूलता अनुसार अंडों से 5-6 दिन में लारवे निकलते हैं जो अन्य छोटे-छोटे कीटों को खा पीकर ही पलते-बढते हैं। इस कीट के ये लारवे घात लगाकर शिकार करते हैं। अपना पेट भरने के लिए इस कीट के लारवे व् प्रौढ़ों का दूसरे कीटों पर निर्भर रहना ही इन्हें प्राकृतिक कीटनाशी के रूप में अपना वजूद कायम करने के लिए काफी है। मगर इस आपाधापी व् बिसराण के बाजारू युग में किसे फुरसत है विषमुक्त खेती के लिए इनके इस लाजवाब कार्य को परखने व् मान्यता देने की।