Saturday, February 22, 2014

सबसे खतरनाक

मौसम की मार सबसे खतरनाक नहीं होती,
कम पैदावार सबसे खतरनाक नहीं होती,
खड़ी फसल ड़ह जाना सबसे खतरनाक नहीं होता,
जहर की टंकी के लिए मुनाफाखोरो के पास जाना बुरा तो है,
टंकी व् टंकी से निकला जहर बुरा तो है पर सबसे खतरनाक नहीं होता,
न होना थाली में जहर का, ख़ुशी से भर जाना,
टंकी लेकर खेतो में जाना
फसलो को जहर से नहलाना,
सबसे खतरनाक होता है
पैसे देकर पैसो का जहर खाना


Monday, December 17, 2012

भंभीरी - प्राकृतिक कीटनाशी

 भीं-भीं करते हुए चारपाई के शेरुओं और बाईयों के सुराखों में घुसने वाला यह कीड़ा भंभीरी ही तो होता था। अब जब खाट के ये शेरू अर बाई बांस के नहीं रहे तो ये भंभीरी भी घरों में कम दिखाई देने लगी। आज कल तो ज्यादातर खेतों में पोल्ट्री व् डेरी के आसपास जमीन में सुरंग खोद कर रहती हैं। अंग्रेज इनको digger wasp के नाम से जानते हैं। कीट विज्ञानिक इनको Oxybelus sp के रूप में जानते पहचानते हैं। नामकरण की द्विपदी प्रणाली के मुताबिक इस कीट का कुटुम्ब Crabronidae व वंशक्रम Hymenoptera है।

भंभीरी एकांकी जीवन जीती है। कीट की प्रौढ़ मादा अपनी अगली टांगों के मदद से रेतीली मिट्टी में अपने घोंसले का निर्माण करती है। इस निर्माण में एक या दो प्रकोष्ठ ही होते हैं।

Sunday, December 16, 2012

प्राकृतिक कीटनाशी- बुच्ची संभिरकायेँ

प्रौढ़ ब्राची
 बीस तरह की मकड़ियों व् पाँच तरह के रोगाणुओं के अलावा कीट साक्षरता केंद्र, निडाना के किसान अभी तक निडाना के कीट परितंत्र में 123 किस्म के मांसाहारी कीट देख चुके हैं। इनमें 92 किस्म के परभक्षी, 29 किस्म के परजीव्याभ व् 2 किस्म के परजीवी कीट शामिल हैं। परजीव्याभों में 21 किस्म के परपेटिये, 3 किस्म के परप्युपीये व्  5 किस्म के परअंडिये  पाये गये हैं।
यहाँ के किसान इन बुच्ची संभीरकाओं की गिनती परप्यूपिये कीटों में करते हैं। क्योंकि ये कीट अपने बच्चे दुसरे कीटों के प्यूपों में पलवाते हैं। वैसे तो निडाना के खेत-खलियानों में दर्जनों किस्म की बुच्ची सम्भिरकाएं मौजूद होंगी। पर किसानों ने तो अभी तक दो ही तरह की पकड़ी हैं- एक ब्राची व् दूसरी कालसी। ब्राची कों इन्होंने तम्बाकुआ सुंडी के प्यूपा से निकलते देखा है व् कालसी को साईं मक्खी के प्यूपा से। ये सम्भिरका आकार में काफी छोटी होती हैं। औसतन 3 से 6 मिलीमीटर। शायद इसीलिए इनकी तरफ ज्यादा ध्यान नहीं गया और ना ही इनके कार्य पर। अन्यथा तो प्राकृतिक तौर पर कीट नियंत्रण में इन सम्भिरकाओं की भी खासी महती भूमिका है। ये संभिरका छोटी बेशक हों पर इनका बदन बलिष्ट एवं गठीला होता है। मुठिया एंटीने व् अत्याधिक मोटी जांघे इनकी पहचान है।



Saturday, December 8, 2012

राम का घोड़ा या गाय?


इस धरती पर यू माणस भी गजब का प्राणी सै। मोह और माया के चक्कर में सब कुछ बाँट लिया। इस बंदर बाँट में शेर नै ना भूमि बक्शी और ना भगवान। निजी मुनाफे पर आधारित इस बंटवारे में सबकी रोळ भी खूब मारी गयी। दूध पीने के लिए अपने पास तो भैस, गाय, ऊँट, भेड़ व् बकरी आदि चोखा दूध देने वाले पशु रख लिये अर राम को पकड़ा दिया यू रंग-बिरंगा कीड़ा।  सवारी के लिये अपने पास तो गधे, घोड़े व् खच्चर रख लिये अर अर राम को पकड़ा दिया यू रंग-बिरंगा कीड़ा। सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान एवं सूक्ष्म राम की रोळ तो इस माणस ने मारी ही मारी। ऊपर तै भारी भरकम अहसान और रख दिया न्यू कह कर कि भगवन आपको तो हमने छांट कर ऐसा जन्नौर दिया है जो आपके घर से कुछ नही खायेगा। इसका दूध भी मुफ्त में पीना और सवारी भी मुफ्त में करना। इसके बच्चे और सयाने दोनों आक्खटे के पत्ते खाकर कर गुज़ारा कर लेते हैं। भगवान पै न तो ना ही कही गई और ना ही हाँ। बस उसके मुहँ तै तो इतना लिकड़ा अक है धरतीपुत्रो पर इस जन्नौर को किस नाम से पुकारा करोगे? इसमें क्या दिक्कत है राम जी। नकुले इसको राम का घोड़ा कह लेंगे अर दूध के लाड़े इसको राम की गाय कह लेंगे। तभी से हमारे यहाँ इस कीड़े को राम की गाय या घोड़े के रूप में जाना जाता है। पर इस कलयुग में कीट वैज्ञानिकों की खाप ने अपनी पंचायत में इस कीड़े का नाम Poekilocerus pictus रख  लिया।  इसका परिवार Pyrogomorphinae तथा इसका वंशक्रम Orthroptera तय कर दिया गया।            
                                राम इस कीड़े का दूध कैसे पीता है और इसकी सवारी कैसे करता है? हमें तो आज तक मालूम नहीं हुआ। पर हमें यह जरुर मालूम है कि यह शाकाहारी कीड़ा कलकता से पेशावर तक पाया जाता है। पर पायेगा वहीं जहाँ आक के पौधे होंगे। पाये भी क्यों नहीं? आक इस कीड़े का प्रमुख एवं सबसे ज्यादा पसंद भोजन जो ठहरा। पर इसका मतलब यह नही कि ये आक के अलावा कुछ भी नहीं खायेंगे। भूखे मरते तो रो पीटकर 200 से भी ज्यादा पौधों की प्रजातियों पर गुज़ारा कर लेते हैं।  जिनमें कपास, गेहूँ, मक्का, लोबिया, अरण्ड, भिंडी व बैंगन आदि भी शामिल हैं। सुना है 1973 की साल पाकिस्तान के झंग जिला में चिनाब नदी के आसपास इस कीड़े ने कपास, खरभुजे, मिर्च व् लोकी की फसल में काफी नुकशान पंहुचा दिया था। ऐसा तो इस कीड़े के निजी जीवन में अत्याधिक मानवीय हस्तेक्षप के कारण हो सकता है। अगर कोई आक़ के पौधे ही खत्म कर डाले तो ये बेचारे क्या करेंगे?
        अपने प्रौढीय जीवन में प्रवेश के एक-दो दिन बाद ही इस कीट की मादायें सहवास के योग्य हो जाती हैं। इनके जोड़े 6-7 घंटे तक रतिरत रहते हैं। ये मादायें अपने जीवनकाल में 15-16 बार रतिरत होती है और हर बार नये नर के साथ। मादा अपने जीवन काल में एक या अधिक से अधिक दो अंड-फली देती है। हर अंड-फली में तकरीबन 150 अंडे होते हैं। इन अंडो से निकले निम्फ आक के पौधे के पास दिखाई देते हैं। पैदाइस से प्रौढ़ विकसित होने तक ये निम्फ आमतौर पर छ: बार कांजली उतारते हैं।  खाने के लिए आक के पत्तों की उपलब्धता के  बावजुद इस कीट के प्रौढ़ स्वाद बदली के लिये आपस में एक दुसरे को भी खा जाते हैं।                                                                      

Sunday, October 28, 2012

घुघु -एक प्राकृतिक कीटनाशी


घुघु के नाम व् ठिकाने से सभी हरियाणा वासी भली-भांती परिचित हैं। यह कीड़ा खेत-खलियानों की  सूखी व् बारिक रेत में दिखाई देने वाले कीपनुमा गड्डों की तली में मिट्टी के नीचे छुप कर रहता है। इन गड्डों में चींटियाँ डालकर उनका शिकार होते देख कर खूब मजे करते थे बचपन में। क्या आया याद आपको भी। "घुघु राजा, घुघु राजा-शक्ल जरा दिखला जा।" भूमि में रहते हुए चीटिंयों का शिकार करने वाला कोई और नही बल्कि यह घुघु ही तो होता था। अंग्रेज़ लोग इस घुघु को Antlion के नाम से जानते हैं। कीट विज्ञान की भाषा में इस  कीट को Myrmeleon प्रजाति के रूप में जाना जाता है। कीट वैज्ञानिकों के मुताबिक इसका परिवार Myrmeleontidae व् वंशक्रम Neuroptera है। घुघु को अपनी जीवन यात्रा पूरी करने के लिये अंडा, लार्वा, प्यूपा व् प्रौढ़ अवश्थाओं से गुजरना पड़ता है। इस कीट की 
           इस कीट का लार्वा अपने गठीले पेट व् दरान्तिनुमा मजबूत जबड़ों की मदद  से  कीपनुमा खड्डा खोदता है। इस खड्डे की तली में मिट्टी के निचे छुप कर चुप-चाप शिकार का इंतजार करता है। जाने-अनजाने में जब भी               

Sunday, September 2, 2012

इनो - एक परपेटिया कीटनाशी

कीट नियंत्रण के नाम पर आज बाज़ार में जितने ब्राण्ड के जहरीले कीटनाशी उपलब्ध हैं, उनसे कहीं ज्यादा किस्म के कीटनाशी कीट हमारी फसलों में मौजूद हैं। इन्हीं कीटनाशी कीटों में एक यह है- इनो। निडाना व् ललित खेड़ा के किसान इसी नाम से जानते हैं। इनो अपने बच्चे सफ़ेद मक्खी के शिशुओं के पेट में पलवाती है। इसीलिए निडाना कीट साक्षरता केंद्र के किसान इसे   परपेटिया कीटनाशी कहते हैं। बामुश्किल आधा - एक मिलीमीटर के इस कीड़े का नामकरण दुनिया की किसी भी जन भाषा में नहीं हुआ। पर कीट वैज्ञानिकों की भाषा में जरुर इसको  Encarcia spp. के रूप में पुकारा जाता हैं। वैज्ञानिकों की छोटी सी दुनिया में इसका वंशक्रम Hymenoptera व् कुणबा Aphelinidae बताया जाता है।
                      नाम में क्या रखा है। नाम तो कुछ रख लो। असली बात तो है इनको पहचानने की, समझने की व् परखने की।
सुनैहरी पीले रंग की इस संभीरका की मादा प्रजनन के लिए कपास के पत्तों पर सफ़ेद मक्खी की कालोनियों की तलाश में घूमती है। यहाँ सफेद मक्खी के शिशुओं को अपने एंटिनों से टटोल-टटोल कर उपयुक्त पालनहार की खोज करती है। उपयुक्त पालनहार मिलते ही यह मादा अपना एक अंडा पत्ते की सतह और मेज़बान के मध्य चुपके से रख देती है। इस तरह से इस छोटी सी ततैया को अपने छोटे से जीवन काल में सवासौ-डेढ़ सौ अंडे देने होते हैं। अत: इतने ही पालनहार ढूंढने पड़ते हैं। अंडे से निकलते ही इस ततैया का बच्चा पालनहार के पेट में घुस जाता है। और वहीं बैठा-बैठा आराम से मेज़बान को अन्दर से खाकर पलता-बढ़ता रहता है। इनो का यह बच्चा पूर्ण विकसित होकर प्युपेसन भी मेज़बान के शारीर में ही करता है। और फिर एक दिन इस मेज़बान के शारीर में गोल घट्टा कर एक प्रौढ़ अपना स्वतंत्र जीवन जीने के लिए बाहर निकलता है। इस सारी कार्यवाही में मेज़बान को तो निश्चित तौर पर मौत ही नसीब होती है। इस कीट के प्रौढ़ अपना गुज़र-बसर सफ़ेद मक्खियों को खा-पीकर करते हैं।

      है ना गज़ब की प्राकृतिक कीटनाशी यह छोटी सी संभीरका। सफ़ेद मक्खी के लिए यमदूत और फसल के लिए रक्षक।

Saturday, September 1, 2012

बाजरे की सिर्टियों पर गुबरैले का बसेरा


यू हरे धातुई रंग का भूंड जो बाजरे की सिर्टियों पर बैठा दूर तै एँ नजर आया करै। यू  चर्वक किस्म का एक शाकाहारी गुबरैला सै। अंग्रेजी में इस कीड़े को Rose chafer के रूप में जाना जाता है। कीट विज्ञानियों की दुनिया में इसे Cetonia aurata नाम से पुकारा व् लिखा जाता है। इस कीट के प्रौढ़ प्राय गुलाब के फूलों पर मधुरस व् परागकण पर गुज़ारा करते नजर आते हैं। पर हरियाणा के खेतों में तो गुलाब के पौधे होते ही नही। इसीलिए इस गुबरैले को बाजरे की सिर्टियों पर काचा बुर(परागखा कर गुज़ारा करना पड़ता है। और करै भी के? इसनै तो भी अपना पेट भरना सै अर वंश वृद्धि का जुगाड़ करना सै। बाजरे की फसल में तो बीज पराये पराग से पड़ते हैं। अत: इस कीट द्वारा बाजरे की फसल में पराग खाने से कोई हानि नही होती। बल्कि जमीन में रहने वाले इसके बच्चे तो किसानों के लिए लाभकारी सै क्योंकि जमीन में वे केंचुवों वाला काम करते हैं। अत: इस कीड़े को बाजरे की सिर्टियों पर देखकर किसे भी किसान नै अपना कच्छा गिला करण की जरुरत नही अर ना किते जा कर इसका इलाज़ खोजन की।
आपने हरियाणा में ज्युकर बहुत कम लोगाँ नै मोरनी पै मोर चढ्या देखा सै न्यू यू कीड़ा भी शायद बहु ही कम किसानों व् कीट वैज्ञानिकों नै ज्वार की सिर्टियों पर देखा सै। असली बात तो या सै अक यू कीड़ा सै भी ज्वार की फसल का कीड़ा। पर कौन देखै ध्यान तै ज्वार की सिर्टीयाँ नै।
इस कीड़े को खान खातिर म्हारे खेताँ में काबर, कव्वे व् डरेंगो के साथ-साथ लोपा मक्खियाँ भी खूब सैं अर डायन मक्खी भी खूब सै।  बिंदु-बुग्ड़े, सिंगू-बुग्ड़े व् कातिल-बुग्ड़े भी नज़र आवैं सैं।  हथ्जोड़े तो पग-पग पर पावे सै। यें भी इसका काम तमाम करे सै।