Saturday, July 18, 2009

प्राकृतिक कीटनाशी - कातिल बुगडा



" बुड्डा हो या जवान, हत्या सेती काम। " जी, हाँ! यही काम है इस सुधे एवं शांत से दिखाई देने वाले कीट का। निडाना, रूपगढ़, राजपुरा व ईगराह के किसान इसे कातिल बुगडा कहते हैं। यूरोपियन लोग इसे असैसिन बग कहते हैं। जीव विज्ञान की जन्मपत्री के मुताबिक इन बुगड़ों की प्रजातियों का नाम मालूम नहीं पर इनका वंशक्रम Hemiptera व् कुणबा Reduviidae जरुर सै। जिला जींद के निडाना गाम में किसान अपनी फसलों में अब तक इन कातिल बुगड़ों की तीन प्रजातियाँ देख चुके हैं। अपने से छोटे या हाण-दमाण के कीटों का कत्ल कर उनके खून से अपना पेट पालना व वंश चलाना ही इसका मुख्य धंधा है। इनके भोजन में गजब की विविधता होती है। इनके भोजन में मच्छरों, मक्खियों, मिलिबगों, तितलियों, पतंगों, बुगड़ों, भृगों तथा भंवरों सम्मेत अनेक किस्म के कीट व उनके शिशु शामिल होते है। कातिल बुगड़े व इनके बच्चे विभिन्न कीटों के अण्डों का जूस भी बड़े चाव से पीते हैं। ये बुगड़े हालाँकि उड़ने में हरकती होते हैं पर शिकार फंसते ही उसके शरीर में अपना डंक घोपने में एक सैकंड का समय नही लगाते। ये कातिल कीट डंक के जरिये शिकार के शरीर में अपना जहर छोड़ते हैं। इस जहर में शिकार के शरीर के अन्दरूनी हिस्सें घुल जाते हैं जिन्हें ये डंक की सहायता से चरड-चरड पी जाते हैं। मादाओं को प्रजनन का काम भी करना होता है। इसके लिए उन्हें सैंकडों की तादाद में अंडे देने होते हैं। इसीलिए तो मादाओं को नरों के मुकाबले ज्यादा प्रोटीनों की आवश्यकता बनी रहती है। प्रोटीनयुक्त ज्यादा भोजन कुशल शिकारी बनकर ही जुटाया जा सकता है। इसीलिए तो नरों के मुकाबले  इन बुगड़ो की मादा अधिक कुशल शिकारी होती हैं। शिकार ना मिलने की हालत में इनके भूखा मरने की नौबत भी आ जाती है। ऐसे हालत में ये एक दुसरे का कल्याण भी कर डालते हैं।

पकड़ने की कोशिश करने या इनके साथ छेड़खानी करने पर ये बुगडे इंसानों को भी डंक मारने से नही चुकते। इनके काटने से होने वाली असहनीय पीडा का सही अंदाजा तो इनका डंक मरवा कर ही लगाया जा सकता है। इंसानों में "चागा" नामक लाइलाज बीमारी फैलाने में इन कातिल बुगडो की बहुत बड़ी भूमिका होती है। अत: किसानों को इनका तमासा दूर से ही देखना चाहिए।


खानदानी परिचय :
कातिल बुगडों का मुहं बेशक बटवा सा न होता हो पर इनका डंक जरुर सुआ सा होता है। इनके शरीर का रंग काला व लाल या काला व भूरा होता है तथा शरीर की लम्बाई बीस-पच्चीस मिलीमीटर होती है। इनका गर्दन रूपी सिर काफी लंबा व पतला होता है। इनकी चमकदार आँखें माला के मनकों जैसी गोल -गोल व छोटी-छोटी होती हैं।
इनके शिशु जिन्हें कीट वैज्ञानी निम्फ कहते हैं, पंखों को छोड़कर अपने प्रौढों जैसे ही होते हैं। मौसम के मिजाज व भोजन की उपलब्धता के मुताबिक कातिल बुगडा के ये शिशु पैदा होने से लेकर प्रौढ़ बनने तक 65 से 95 दिन का समय लेते हैं और इस दौरान ये पॉँच बार कांझली उतारते हैं। इनका प्रौढिय जीवन 6 से 10 महीने तक का होता है। इस दौरान आशामेद होने के बाद, सिवासन मादाएं आमतौर पर समूहों में अंडे देती हैं।  एक समूह में तकरीबन चालीस से पच्चास अंडे होते है जिनका रंग गहरा भूरा होता है। इन अण्डों की बनावट सिगार जैसी होती है।





कातिल बुगड़े का अंडा.
कातिल बुगड़े का निम्फ












4 comments:

  1. dr.dalal realy u r doing a great job, one day will come when u will be rewarded for this great working, we all hope so.

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  2. Nature apna kaam kerti h na dost....foodchain.

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  3. no doubt,the day will come,when our society will be rewarded for this collective work of farming community including you also,Dr.Rajesh

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  4. ofcourse, it works, Kadyan ji but for confidence buildup we must know what is going on in nature around us.

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