Sunday, September 5, 2010

जयन्तु- एक परभक्षिया कीटनाशी



राम का घोड़ा ! ना.. बाबा.. ना। यू तो नेता जी सै, पाछले जन्म में हाथ जोड़न की बाण कौन गई - हथजोड़े की । यू जो भी सै, सै पक्का छलिया। देखन में दूब बरगा अर दोनों हाथ जोड़े खड़ा| सिर पर इसकै ताज! मांस खाना मुख्य काज!! फेर तो यू ना राम का घोड़ा अर ना हथजोडा। यू तो होया नमस्ते करकै मारणिया - नमन्तु या जयन्तु । अंग्रेज तो इसनै प्रेइंग मेँटिस कह्या करे। कहण का के सै। कहण नै तो म्हारे बडे-बूढे भी इसकी अंडथैली नै गादड़ की सुंडी कह्या करै। पाड़ लो नै पुन्ज़ड । छोडो नाम, नाम में के धरया सै। इसका काम बताओ?
काम तो इसका एक्के सै। मांस खाणा अर बालक जामणा। आमतौर पर इनके भोजन में मकडी, मक्खी, मच्छर, अल, तेला, चुरडा, तितली, पतंगा, भंवरा, भुंड और सुंडी आदि कीट शामिल होते हैं। पर विशाल प्रजाति के हथजोड़े छोटी-छोटी छिपकलियों, मेंढ़कों, पक्षियों, सांप, मछली और मूषकों तक को भी खाते देखे गये हैं| कुछ फंस ज्याओ , उसे नै रगड़ दे सै। और तो और आगै की होंदे ही अपने मर्द नै भी खा जा सै। सै सही खसमखाणी। खसमखाणी बेशक हो, पर बालक इसने भी बहुत प्यारे लागै सै। इसीलिए तो या रांड अपनी मजबूत अन्डथैली को झाड, कीकर, कैर, हिंस तथा जांडी आदि कंटीले पौधों की टहनियों पर ही चिपकाया करती है । पर यह क्या ? अबकी बार तो इस नै अन्डथैली कांग्रेस घास की टहनियों पर चिपकाई सै। पता सै क्यूँ ? क्योंकि अन्डथैली से निकलते ही इसके नवजात शिशुओं को कांग्रेस घास पर मिलीबग व उसके बच्चे खाणे को मिलेंगे। मैक्सिकन बीटल के प्रौढ़ और गर्ब खाने को मिलेंगे. अर वो भी भरपेट !! इस साल तो इस कीटखोर की अंडेदानी ललित खेडा गाम के राम देवा के खेत में धान की फसल में भी देखी गयी है| निडानी के किसानों ने तो इसकी ये अंडेदानियाँ खरपतवार कहे जाने वाले बथुवा व् मिर्ची-बूटी के पौधों पर भी देख ली. इसका सीधा सा मतलब हुआ कि जहाँ बच्चों के लिए भोजन का जुगाड़ हो - वही अपनी अंडेदानी चिपका दी.
सुना है दुनिया भर में इस कीटखोर की 2200 प्रजातियाँ पाई जाती हैं| पर निडाना गावं में तो अब तक किसान इसकी 7 प्रजातियाँ ही देख पाए हैं| महिला खेत पाठशाला, निडाना (जींद, हरियाणा) की महिलाओं ने कीट नियंत्रण में इस गजब के कीटखोर की कीटनियंत्रण में महती भूमिका को मध्यनजर रखते हुए एक हरियाणवी गीत की रचना की है तथा इस गीत को विभिन्न अवसरों पर इसे गाया भी है. 
तीसरा मौका: गावं में खेत दिवस.








Wednesday, August 11, 2010

लोपा मक्खी:- एक परभक्षिया कीटनाशी

लगभग पच्चीस करोड़ साल से इस धरती पर बास कर रही इन किसान मित्र लोपा मक्खियों को विभिन्न देशों में अलग-अलग नजरिये से देखा जाता है। यूरोप व नई दुनियां के देशों में, लोपा मक्खियों को अक्सर बुरी नजर से देखा जाता है। इसीलिये तो इसे "शैतान की सूई, "कान-कटवी", "नरक की घोड़ी", "यमराज की घोड़ी" व 'सापों की सर्जन' आदि जैसे बुराई द्योतक नामों से पुकारा जाता है।
जबकि पूर्व एशिया और मूल अमेरिका के लोग इन लोपा मक्खियों को आदरमान के साथ देखते है। कुछ मूल अमेरिकी जनजातियां इन्हे शुद्ध पानी का प्रतीक मानती हैं जबकि अन्य तेज़ी, गतिविधि और नवीकरण का प्रतीक।
जापान में इन लोपा मक्खियों को साहस, शक्ति और खुशी का प्रतीक माना हैं। जापान और चीन में तो इन मक्खियों को पारंपरिक औषधि के रूप में भी प्रयोग किया जाता है।
 इंडोनेशिया में इन लोपा मक्खियों के वयस्कों व अर्भकों को तेल में तल कर खाया जाता है।



भारत में इन कीटों को बरसात के आगमन के साथ जोड़ा जाता है। लोपा मक्खियों का जमीन के साथ-साथ मंडराना बरसात की निशानी माना जाता है। इनका आसमान में काफी उच्चे उड़ना धूप निकलने की निशानी व मध्यम उच्चाई पर उड़ना बादल छाने की निशानी माना जाता है। ये मक्खियाँ उडान के दौरान ही सहवास करती है और शिकार भी। ये मक्खियाँ अपने अंडे अमूमन तालाबों, झीलों या धान के खेतों में पानी की सतह पर देती हैं। इन अण्डों से निकलने वाले इनके उदिक निम्फ अपना गुज़ारा पानी में रहने वाले अन्य अकशेरुकीय जीवों को खा कर करते हैं। ये निम्फ सांस गुदा से लेते हैं क्योंकि इनके गलफड़े मलाशय में होते हैं। प्रौढ़ता प्राप्त करने के लिए ये निम्फ नौ-दस बार कांजली उतारते हैं।
लोपा-मक्खियाँ (Dragon Flies) एवं इनके अर्भक खाने के मामले में नकचढ़े नही होते। इन्हें जो भी फंस जाता है, उसे ही खा लेते हैं। इनके भोजन में मक्खी, मच्छर, तितली, पतंगें, मकड़ी व बुगड़े आदि कुछ भी हो सकता है। इन परभक्षियों के भूखड़पन का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि एक प्रौढ़ मक्खी प्रतिदिन अपने वजन से भी ज्यादा मच्छर निगल सकती है। धान की फसल में हानि पहुँचाने वाली तना छेदक व पत्ता-लपेट जैसी सूंडियों के पतंगों का उड़ते हुए शिकार करने में तो माहिर होती हैं ये लोपा। खेत में काम करते हुए किसानों के सिर पर मंडराने के पिछे भी इन मक्खियों का उद्धेश्य शिकार करना ही होता है।










Saturday, August 7, 2010

गुलाबी सूंडी - कपास का कीड़ा।


दुनिया भर में कपास के मुख्य हानिकारक कीटों में शुमार यह गुलाबी सूंडी आजकल हरियाणा में  कम ही पाई जाती है। कीट वैज्ञानिक जगत में इस कीड़े को Pectinophora gossypiella के नाम से जाना जाता है। खानदान व गौत्र के हिसाब से यह कीट Lepidoptera क्रम के Gelechiidae कुल से संबंध रखता है। इस कीट की प्रौढ़ अवस्था यानि कि पतंगे आकार में छोटे व रंग में गहरे भूरे होते हैं। इसकी अगली पंखों पर काले धब्बे होते हैं तथा पिछली फंख किनारों से झालरनुमा होती हैं। रात को सक्रिय रहने वाले ये पतंगे शमा के प्रेम में परवान चढने वाले होते हैं। यह कीड़ा जुलाई से नवंबर तक सक्रिय रहता है।  हर साल कपास के खेत में इसके मादा पतंगों की पहली पीढी तो  बौकियों पर या फिर बौकियों के नजदीक टहनियों, छोटी व कच्ची पत्तियों के निचले हिस्सों पर एक एक करके सफेद व चपटे अंडे देती हैं। इसके बाद वाली पीढियां अपने अंडे एक-एक करके ही फूलों के बाह्यपुंजदल पर देती हैं। सामान्यतौर पर 3 से 4 दिनों में इन अंडों से तरुण सूंडियाँ निकलती हैं। पर ताप व आब की अनुकूलता अनुसार यह अंड-विस्फोटन आगे व पिछे भी हो सकता है। प्रारम्भिक अवस्था में ये सूंडियाँ क्रीमी कलर की होती हैं परन्तु बाद में इनका रंग गुलाबी हो जाता है। याद रहे यह रंगपलटी इन सूंडियों की चौथी कायापलटी में जाकर होती है।  ये सूंडियां कपास की फसल में बौकियों व फूलों पर हमला करती हैं। सूंडियों से ग्रसित फूल पूरी तरह नही खुलते। कपास के ये ग्रसित फूल बनावट में फिरकी या गुलाब के फूल जैसे हो जाते हैं। शुरुआती अवस्था में ही ये तरुण सूंडियां छोटे-छोटे टिंडों में घुस कर कच्चे बीजों को खाती हैं। टिंडे में घुसने के लिये बनाएं अपने सुराख को अपने मल से ही बंद कर देती है। इस कीट की यह सूंडिय अवस्था लगभग 12 से 15 दिन की होती है।








Friday, August 6, 2010

छैल-मक्खी - एक परभक्षिया कीटनाशी

छैल मक्खी अन्य छैल को खाते हिए।
आराम फरमाती छैल मक्खी
 छैल-मक्खी (Damsel fly) चौमासे (आमतौर पर जून, जुलाई और अगस्त) के दौरान विभिन्न फसलों में उड़ते हुए नजर आने वाली एक महत्वपूर्ण कीटखोर मक्खी है। हरियाणा में इसे तुलसा के नाम से जाना जाता है। लंबे, संकरे व पारदर्शी पंखों वाली ये मक्खियाँ कई रंगों में पाई जाती हैं। इन्हें लोपा-मक्खियों (Dragon flies) के मुकाबले कमजोर उड़ाकू माना जाता है। उड़ने की प्रतियोगिता में उपरोक्त कीटों की हार-जीत से किसानों का क्या लेना-देना। किसानों के लिये तो यह जानकारी फायदेमंद है कि इस छैल-मक्खी के प्रौढ़ व अर्भक, दोनों ही मांसाहारी होते है। यह मक्खी अपने अंडे खड़े पानी में देती है। पानी चाहे गावं के जोहड़ या जोहड़ी में हो या फिर धान के खेत में हो। इस कीड़े के अर्भक पानी में पाये जाने वाले मच्छर के लार्वा समेत उन अन्य सभी कीटों का शिकार कर लेते हैं जो आकार में इनके बराबर या छोटे हों। धान की फसल को हानि पहूँचाने वाले विभिन्न फुदकों का शिकार करने में इन्हें बहुत आनंद आता है। वैसे तो इस कीट के अर्भक पानी में रहते हैं लेकिन खाने के लिए अन्य कीड़ों की तलाश में धान के पौधों पर चढ़ने में इन्हें गुरेज नही होता। इस मक्खी की कुछ प्रजातियाँ तो मकड़ियों को भी खा जाती हैं, मकड़ी के जाले के पास मँडराते- मँडराते ही जाले में से मकड़ी को दबोच लेती हैं। भोजन के लिये अन्य कीड़ों का अभाव होने पर यह मक्खियाँ आपस में ही एक दूसरे को खा जाती हैं। शायद भोजन में इतनी विविधता के कारण ही भोजन श्रृंखला में इन्हे उच्चा दर्जा हासिल है।
आराम फरमाती छैल मक्खी।
रति रत जोड़े।
आराम

Saturday, July 17, 2010

प्राकृतिक कीटनाशी - कराईसोपा

कराईसोपा का डिंबकः मिलीबग का शिकार।
कराईसोपा का प्रौढ़।
कराईसोपा का डिंबक।


हमारे यहाँ फसलों में पाया जाने वाला यह कराईसोपा एक महत्वपूर्ण कीटखोर कीट है। यह हमारी फसलों को हानि पहुँचाने वाले नर्म देह कीड़ों का प्रमुख प्राकृतिक शत्रु है। आमतौर पर इस कीट के प्रौढ़ रात को ही सक्रिय रहते हैं। अँधेरे में रोशनी पर आकर्षित होना इनके स्वभाव में शुमार होता है। हल्कि-हरे रंग की झिल्लीदार पंखों वाला यह कराईसोपा का प्रौढ़ नरम देह प्राणी होता हैं। इसकी धारीदार पारदर्शी पंखों से इसका पतला सा तोतिया रंगी शरीर साफ नजर आता है। कराईसोपा की कुछ प्रजातियों के प्रौढ़ तो मांसाहारी होते हैं जबकि अन्य के परागकण, मधुरस व नैक्टर आदि पर गुजारा करते हैं। कराईसोपा की सभी प्रजातियों के डिंबक मांसाहारी होते हैं। इस कीड़े की मांसाहारी प्रजातियों के प्रौढ़ व सभी प्रजातियों के डिंबक (शिशु) सफेद-मक्खी, तेला, चेपा, चुरड़ामिलीबग आदि शाकाहारी कीड़ों के प्रौढ़ों व बच्चों को खाकर जिंदा रहते हैं। ये कीड़े भाँत-भाँत की तरुण सूंडियों का भी भक्षण करते हैं। इस कीट की सिवासण मादाएं प्रजाति अनुसार एक-एक करके या गुच्छों में 600 से 800 तक डंठलदार अंडे देती हैं। अन्य कीटखोरों का शिकार होने से बचने के लिये ही ये अंडे बहुत ही महिन सफेद रंग के रेशमी से डंठलों पर रखे जाते हैँ। अंडों का रंग शुरु में पीला-हरा होता है जो बाद में सफेद तथा फूटने से पहले काला हो जाता है। चार दिन में ही इन अंडों से कराईसोपा के डिंबक निकल आते हैं। ये डिंबक अपने जीवन काल में तीन बार कांजली उतारते हैं। इनके शरीर की लम्बाई 3 से 20 मि.मी. तथा रंग मटमैला-पीला जिसके ऊपर गहरी धारियां भी होती हैं। कराईसोपा के ये डिंबक देखने में तो ऐसे दिखाई देते हैं जैसे कोई मिनी-मगरमच्छ हो। इनके जबड़े देखने में दरांतियों जैसे होते हैं। शिकार का खून चूसने के लिये इन जबड़ों की बदौलत ही शिकार के शरीर में सुराख किया जाता है। निडाना के किसानों ने कपास के खेत में क्राईसोपा के डिम्बक को मिलीबग का शिकार करते हुए मौके पर अनेकों बार देखा है व् इसकी वीडियो बनाई है. इन्होने कांग्रेस घास के पौधों पर भी इस डिम्बक को मिलीबग का सफाया करते देखा है.

 
कराईसोपा का अंडा।
.इन डिंबकों के भोजन में गजब की विविधता होती है। एक तरफ तो इनके भोजन में मिलीबग, तेले, सफेद-मक्खी, चुरड़े, चेपे व मकड़िया जूँ आदि छोटे-छोटे कीट होते हैं तथा दूसरी तरफ भांत-भांत की तरुण सूंडियां व विभिन्न कीटों के अंडे भी इनके भोजन में शामिल होते हैं। इनकी यह डिंबकिय अवस्था 15 से 20 दिन की होती है। अपने इस दो-तीन सप्ताह के जीवनकाल में ये डिंबक 100 से 600 तक चेपे(अल) डकार जाते हैं। चेपे खाने के मामले में पेटू होने के कारण ही शायद इन्हें चेपों का शेर कहा जाता बै। कराईसोपा की प्यूपेसन गोलाकार रेशमी ककून में होती है। कोकून काल 10 से 12 दिन का होता है। इस कोकून के अन्दर ही कराईसोपा का डिम्बक कायापल्टी कर-करा के प्रौढ़ के रूप में विकसित होता है. कराईसोपा की कुछ प्रजातियों को छोड़ कर ज्यादातर में जीवन के इस पड़ाव पर मांसाहार त्यागने की प्रवृति पाई जाती है.
कराईसोपा का अंडे।
अगर कीट प्रबन्धन के कमांडर व् मोर्चे पर जुटे किसान इस प्राकृतिक कीटनाशी को पहचानने लग जाये तो हमें अंदाज़ा नही कि हमारी फसलों में कितना कीटनाशी जहर कम हो जायेगा।
निडाना गाम के किसानों की तरह अगर आप भी इनकी फसलों के परितंत्र में पाये गये 118 किस्म के मांसाहारी को पहचानने,जानने व् परखने लग जाओ तो आपको भी अपनी फसल में एक छटांक कीटनाशक की जरूरत नही पड़ेगी।

Thursday, February 25, 2010

मोयली - किसान हितेषी सम्भीरका

हरियाणा प्रान्त में भी विभिन्न फसलों पर चेपे / अल का आक्रमण अमूमन आये साल की आम बात है| इसमें अगर खास बात है तो वो यह है कि कीट नियंत्रण रूपी फल की आस में किसान केवल कीटनाशकों के छिडकाव का कर्म ही करते हैं| पर काला सच यह भी है कि स्थानीय पारिस्थितिक तंत्र का थोड़ा सा भी ज्ञान रखने वाला इंसान इस चेपे / अल के प्रबंधन में मोयली नामक सम्भीरकाओं की महत्ती भूमिका को नही नकार सकता| मोयली आकार में बहुत छोटे तथा बनावट में भीरड़नुमा कीट होते हैं जिनके शरीर की लम्बाई एक से तीन मिलीमीटर होती है| इन मोयली नामक परजीव्याभ सम्भीरकाओं को अपनी लार्वल एवं प्यूपल अवस्थाएं चेपे के शरीर में बितानी पड़ती हैं| मोयली के लार्वा का बसेरा एवं भोजन चेपे का शरीर ही होता है| "त्वमेव भोजनं च त्वमेव आवास:" मोयली का लार्वा चेपे के शरीर को अन्दर ही अन्दर खा-पीकर पलता-बढ़ता है तथा पूर्ण विकसित होकर चेपे के शरीर में ही प्युपेसन करता है| इस प्रक्रिया में चेपे को नशीब होती है सिर्फ मौत यानि कि वही सज़ा जो किसान इस चेपे को कीटनाशकों का इस्तेमाल करके देना चाहता है|
खानदानी परिचय:
                निडाना व इगराह के किसानों द्वारा मोयली के नाम से जानी जाने वाली इन परजीव्याभ सम्भीरकाओं की जाति को कीट वैज्ञानिक Aphidius colemani के नाम से पुकारते हैं| जीवों के नामकरण की द्विपद्धि प्रणाली के मुताबिक इनके वंशक्रम का नाम Hymenoptera तथा कुणबे का नाम Aphiidae होता है| इस परिवार में Aphidius नाम की तीस से ज्यादा जातियां तथा तीन सौ से ज्यादा प्रजातियाँ पाई जाती हैं| जो कुल मिलाकर अल की चालीस से ज्यादा प्रजातियों को अपना शिकार बनाती हैं|
जीवन यात्रा:
        मोयली नामक इस सम्बीरका का जीवनकाल सामान्यतौर पर 28 से 30 दिन का होता है| सहवास के बाद मोयली मादा अपनी 14 -15 दिवसीय प्रौढ़ अवस्था में एक-एक करके 300 से ज्यादा अंडे देती है| दूधो नहाओ-पूतो फलो के लिए मोयली मादा को ये अंडे चेपों के शरीर में देने होते हैं|  अंड-निक्षेपण के लिए उपयुक्त 300 से ज्यादा चेपे ढूंढ़ लेना ही मोयली मादा की प्रजनन सफलता मानी जाती है| पर यह काम इतना आसान भी नही है| इसके लिए मोयली मादा को चेपा खूब उल्ट-पुलट कर पुष्टता व परजीव्याभिता के लिए जाचना-परखना होता है| अंड-निक्षेपण के लिए उपयुक्त पाए जाने पर ही अपने अंड-निक्षेपक के जरिये एक अंडा चेपे के शरीर में रख देती है| अंड-विस्फोटन के बाद मोयली का नन्हा लार्वा चेपे के शरीर को अन्दर से खाना शरू करता है| चेपे के शरीर को अन्दर ही अन्दर खाते-पीते रहकर यह लार्वा पूर्ण विकसित होकर प्युपेसन भी चेपे के शरीर में करता है| पेट में पराया पाप पड़ते ही चेपे का रंग व हाव-भाव बदलने लगता है| इसका रंग बादामी या सुनैहरा हो जाता है तथा शरीर फूलकर कुप्पा हो जाता है| इसी कुप्पे में गोल सुराख़ करके एक दिन मोयली का प्रौढ़ स्वतंत्र जीवन जीने के लिए बाहर आता है| अंडे से प्रौढ़ के रूप में विकसित होने के लिए इसे 14 -15 दिन का समय लगता है| इस प्रक्रिया में चेपे को नसीब होती है सिर्फ मौत|