Tuesday, August 25, 2009

प्राकृतिक कीटनाशी - सींगू बुगडा

सींगू बुगड़ा का प्रौढ़।
सींगू बुगडा जिला जींद के परितंत्र में पाया जाने वाला एक सीधा-पादरा खून-चूसक परभक्षी है। वैसे तो यह कीट विभिन्न फसलों में पाए जाने वाले पच्चास से भी ज्यादा भांत-भांत के कीटों का खून चूस कर अपना जीवनयापन करता है। पर सुंडियां मिल जायें तो कहने ही क्या? मिल जाएँ कहीं फसलों में या खरपतवारों पर, इन्हें तो उनका खून चूस कर अपना पेट भरना होता है.
सींगू बुगड़ा के अर्भक।
इस कीट के प्रौढ़ अमूमन आधा इंच लंबे होते हैं व इनके शरीर का रंग भूरा होता है। इनके मजबूत कन्धों पर सींगनुमा कांटे होते हैं शायद इसीलिए यहाँ के किसान इसे सींगु बुगडा कहते हों। पर वैज्ञानिक तो इसे अपनी भाषा में Podisus maculiveentris कहते हैं। इसके परिवार का नाम Pentatomidae तथा इसके वंश का नाम Hemiptera है। इनका प्रौढिय जीवन पैंतीस से पच्चास दिन का होता है। इस बुगडे की मादा अपने जीवनकाल में एक हज़ार तक अंडे दे सकती है। मादा अपने ये अंडे पत्तों की निचली सतह पर गुच्छों में देती है। एक गुच्छे में तकरीबन बीस से तीस अंडे होते हैं। इन अण्डों का रंग क्रीमी से लेकर काला तक होता है तथा देखने में पीतल के बरोले जैसे दिखाई देते हैं जिनके किनारों पर खड़े रुंग होते हैं। इन अण्डों से चार-पाँच दिन में निम्फ निकलते हैं जिनका सिर व धड़ काला तथा पेट सुर्ख लाल होता है। ये निम्फ पहली कान्झली उतारने तक तो बरती ही रहते हैं तथा शेष निम्फल जीवन खून-चूसक परभक्षी के तौर पर बिताते हैं। इनका यह निम्फल जीवन पच्चीस-तीस दिन का होता है।
सींगू बुगड़ा के अंडे एवं अर्भक।
इस बुगडे की मादाओं की खुराक अपने नर साथियों के मुकाबले ज्यादा होती है पर नरों की तुलना में जिंदगानी बहुत कम होती है। नर तो 180 दिन जिन्दा रहते हैं जबकि मादाएं तो सिर्फ़ 125 दिन ही जिन्दा रह पाती हैं। "ज्यादा खुराक-कम जिंदगी" के कारणों की तलाश या तो अति प्रकृति प्रेमी कर सकते है या फ़िर लगनशील कीट-वैज्ञानी। हम किसानों का काम तो इस कीट की पहचान व इसके स्वभाव के बारे में मामूली जानकारी होने से ही चल जाएगा। इस कीट का मांसाहारी होना किसानों के हक की बात है। हमारे फसलतंत्र में इसका पाया जाना लाजिमितौर पर कीटनाशकों पर खर्च को कम करवाएगा क्योंकि ये बुगड़े भी तो अपने जीवनयापन के लिए कीटों को खत्म करते है. कीटों का नाश करने वाले को हो तो कीटनाशी कहते हैं.

कपास का शाकाहारी कीट - चित्तकबरी सुंडी



 कुछ साल पहले तक हरियाणा प्रदेश में चितकबरी सूंडी कपास की फसल
 का मुख्य हानिकारक कीट होती थी। पर आजकल यह सूंडी कपास की 
फसल में बहुत कम दिखाई देती है। यह सूंडी पै समय का कहर है। या व्यापार का दोपहर है।। - कुछ कह नही सकते। हाँ, इतना जरुर है कि हरियाणा में किसान इस सूंडी को काला कीड़ा, धब्बेदार सूंडी व गोभ वाली सूंडी आदि नामों से जानते व पहचानते हैं। हमारे यहाँ कपास की फसल में इस कीड़े की दो प्रजातियाँ पाई जाती हैः इयरिआस विटैला और इयरिआस इन्सुलाना। इयरिआस विटैला नमी वाले मौसम में ज्यादा पाई जाती है तथा इयरिआस इन्सुलाना खुसकी वाले मौसम में ज्यादा पाई जाती है। इन कीट पंतगों की सिवासण पौधों के पत्तों, शाखाओं एवं फलीय भागों जैसे रोयेदार हिस्सों पर एक-एक करके 200 से 400 तक अण्डे देती हैं। इन अंडों का रंग हल्का नीला होता है। सामान्य परिस्थितियों में इन अंडों से तीन चार दिन बाद नन्ही सूंडियाँ निकलती हैं जो कपास के पौधों की गोभ व फलीय हिस्सों पर हमला करती हैं। जिस कारण गोभ मुरझाकर सूख जाती हैं, बौकी व फूल झड़ जाते हैं, ग्रसित टिंडे समय से पहले खिल जाते हैं तथा टिंडों में फौहा खराब हो जाता है। इस कीड़े की लार्वल अवस्था तकरीबन 10 से 16 दिन की होती है। इसके बाद यह सूंडी प्यूपा बन जाती है। इस कीड़े की यह प्यूपीय अवस्था पौधे के विभिन्न भागों, झड़ी हुई बौकियों व अन्य अवशेषों पर लगभग 4 से 9 दिन में पूरी हो जाती है। इस प्यूपा से प्रौढ़ पतंगे निकलते हैं जो 8 से 20 दिन तक जीवित रहते हैं।

ये पतंगे रात को ही सक्रिय रहते हैं. रात को ही नर-मादा का मधुर मिलन होता है तथा रात को ही अंड-निक्षेपण. दिन में तो इन्हें छुपकर रहना होता है. अन्यथा लोपा मक्खी व् डायन मक्खी इनका उड़ते हुए ही काम तमाम कर देती है. इस कीट के प्रौढ़ों व् सुंडियों के लिए घात लगा कर बैठे भान्त-भान्त(दिद्ड बुग्ड़ा, कातिल बुग्ड़ा, सिंगू बुग्ड़ा, बिन्दुवा बुग्ड़ा, एंथू बुग्ड़ा) के बुग्ड़े भी कपास के खेत में किसानों ने देखे हैं. ये मांसाहारी बुग्ड़े इस कीट के अण्डों से जीवन-रस पीने में भी माहिर होते हैं.























Tuesday, August 18, 2009

कपास में रस चुसक :- अष्टपदी

अष्टपदी या मकडिया-जूं , जिला जींद की कपास फसल में रस चूस कर हानि पहुँचाते पाया जाने लगा है। इस जीव की आठ टाँगे होती हैं इसीलिए तो इसे कीट नही कहा जाता। हाँ! वैज्ञानिकों की दुनिया में इस जीव को "Tetranychus sp." कहा जाता है। ये अष्टपदियाँ Tetranychidae नामक घुन परिवार से सम्बंधित हैं. इस परिवार में इन अष्टपदियों की हज़ार से भी ज्यादा प्रजातियाँ पाई जाती हैं. आमतौर पर ये महीन जीव अपनी सुरक्षा के  लिए पत्तों की निचली सतह पर रेशमी जाला बुनती हैं. शायद इसी गुण के कारण इन्हें मकडिया-जूं कहा जाता है. ये अष्टपदियाँ कपास की फसल में पत्तों की निचली सतह से रस चूस कर नुकशान पहुँचाती हैं। आकार में इतनी छोटी (बामुश्किल एक मिलीमीटर) होती हैं कि किसान को मुश्किल से ही दिखाई देती हैं। यूँ तो ये जीव लाल, हरी, सन्तरी या तिनका रंगी होती हैं पर पत्तों की निचली सतह पर धूल कण सी दिखाई देती हैं। सामान्य परिस्थितियों में इनकी जीवन यात्रा 9-10 दिन की होती है ।
गर्म व शुष्क मौसम इनके लिए ज्यादा अनुकूल होता है। याद रहे अष्टपदियाँ पत्तों, तनों व बौकियों से रस चूस कर पौधों को हानि पहुँचाती हैं। इससे पत्तों में क्लोरोफिल की भी कमी हो जाती है। वांछित भोजन ना मिलने के कारण पौधों की स्वाभाविक वृध्दि व् प्रजनन प्रक्रियाएं अवरुद्ध हो जाती हैं। पर स्वभाव से अष्टपदियाँ आक्रामक घुमंतू नही होती. इसका मतलब जिस पत्ते पर जन्म हुआ वहीं या एकाध साथ वाले पत्ते पर  गुज़ारा व् प्रजनन कर लिया. चेपों की तरह से इन्हें रसीली फुन्गलों में कोइ दिलचस्पी नही होती.
हमारी फसलों में इन  को खाने के लिए भान्त-भान्त के कीड़े पाए जाते हैं.
दस्यु बुगडा अपने भोजन में खाने के लिए अष्टपदियाँ मिलने को अपना सौभाग्य समझता है। छ: बिन्दुआ चुरडे तो इन अष्टपदियों को चट करते ही हैं। इन्हें तो रस चूसक चुरडे तक साफ कर जाते हैं। विभिन्न बिटलों के बच्चे भी इन अष्टपदियों को चाव से खाते हैं। इसीलिए तो इन अष्टपदियों के नियंत्रण के लिए किसी कीटनाशक का स्प्रे करने की आवश्यकता नही होती। कीटनाशकों के अनावश्यक स्प्रो से इन अष्टपदियों को खाने वाले कीट भी बेमौत मारे जाते हैं और फसल में अष्टपदियों का प्रकोप बेकाबू हो सकता है।

Monday, August 10, 2009

कपास सेधक कीट - सफ़ेद मक्खी

रस चोर सफ़ेद मक्खी का जिक्र चलते ही आज पत्ता नहीं क्यों 13 साल पहले 1986 में पढा हुआ यह नारा याद आ गया, "चिट्टे कबूतर ते नीले मोर, सारे चोर - सारे चोर." यह नारा गुरमुखी में लकड़ी जला कर बनाए गये कोयले से बुडैल जेल की एक बैरक में सफ़ेद दिवार पर लिखा हुआ था. इस दृश्य को ताजा करने में सफ़ेद शब्द की भूमिका रही या चोर की या दोनों की यह तो मैं भी तय नहीं कर पाया हूँ. पीले शरीर वाले इस छोटे से कीट की पंखों का रंग सफ़ेद होने के कारण यह सफ़ेद ही दिखाई देता है व पौधों से रस चुराने वाला तो है ही. इसका प्रौढ़ मुश्किल से 1,0 से 1,5 मिलीमीटर लंबा होता है. देखने में यह कीट मक्खी जैसा कम व पतंगे जैसा ज्यादा नजर आता है. इस सफ़ेद मक्खी का असली मक्खियों वाले डिप्टेरा नामक वंश से भी दूर--दूर तक कोई रिश्ता--नाता नहीं. फेर क्यूँ ,अंग्रेजों ने इस कीट का नाम सफेद मक्खी रखा ? -- मेरी समझ तै बाहर सै. अर् अनुवादकों ने भी इसका अनुवाद सफ़ेद मक्खी करके जमाँ--ऐ हिन्दी करण में हद करदी. शायद इसीलिए तो आज भी कपास की फसल में नामलेवा से हानिकारक कीट स्लेटी भुंड को ही सफ़ेद मक्खी समझने वाले किसानों की हरियाणा में कोई कमी नही. इस दुनिया में सफ़ेद मक्खी के कारण फसलों में हर साल होने वाले नुकशान के आंकड़े तो डालरों में आपको कहीं ना कहीं मिल जायेगें पर सफ़ेद मक्खी के नाम पर स्लेटी भुंड को मारने के लिए हरियाणा के किसानों द्वारा हरियाणा के जन्म से लेकर अब तक करोडों रुपये बेमतलब कीटनाशकों पर खर्च किए जाने का आंकडा कहीं नहीं मिलेगा. अब आप ही बताइये कि कीटों व किसानों की इस अंतहीन महाभारत में बिना निजी मुनाफे के क्यों कोई अर्जुन रूपी राणा अपना तीर इस आर्थिक निशाने पर मारेगा?
परिचय :
खिद्दवा से इस रस चूसक की गिनती अमेरिकन कपास की फसल में हानि पहुँचाने वाले खतरनाक कीटो में होती है. रस चूसने के अलावा भी यह कई तरह से अपने आश्रयदाता को नुकशान पहुँचाता है. एक तो इसके मल--मूत्र में मिठास होती है जो पौधों के पत्तों को चीड़-पड़ा कर देती है जिससे प्रकोपित पत्ते निस्तेज होकर मुरझा जाते हैं व पीले पड़ जाते हैं. इस चीड़--पड़े मल--मूत्र पर सूटी--मोल्ड उग आती है. इससे पौधों की भोजन बनाने की प्रक्रिया ही रुक जाती है. दुसरे कपास की फसल में मरोडिया नामक बीमारी के जिम्मेवार वायरस की वाहक भी होती है यह सफ़ेद मक्खी. लीफ कर्ल वायरस का एक पौधे से दुसरे पौधे में संक्रमण इस कीट की लार के मार्फ़त ही होता है.
कीट--वैज्ञानिकों की भाषा में इसको Bemisia tabaci कहा जाता है. इस कीट का कुल Hemiptera वंश में से Aleyrodidae होता है. अपने यहाँ अगर इसका नाम खिद्दवा या मच्छरोड़ होता तो शायद किसानों को भी इसे पहचानने में सहूलियत होती.
Pseudopupa
जीवन--यात्रा:
इस कीट का प्रजनन सारा साल चलता रहता है. इस कीट की प्रौढ़ मादा अपने जीवन काल में सौ--सवासौ अंडे देती है. अंडे पूर्ण खुली हुई फुंगली पत्तियों की निचली सतह पर एक--एक करके दिए जाते हैं. पाँच--छ: दिन के बाद, इन अण्डों से बच्चे निकलते है जिन्हें निम्फ कहा जाता है. निम्फ का आकार इंच का तीसवां हिस्सा ही होता है. ये निम्फ रस चूसने का सही स्थान ढूंढने के लिए ही नाममात्र को चलते है. फ़िर तो एक ही जगह पड़े--पड़े रस चूसते रहते हैं. पॉँच--छ: दिन की इस प्रक्रिया के बाद ये निम्फ स्यूडो--प्यूपा में तब्दील हो जाते हैं. एक सप्ताह में ही स्यूडो--प्यूपा प्रौढ़ के रूप में विकसित हो जाते है. इनका प्रौढिय जीवन आमतौर पर बीस--इक्कीस दिन का होता है.
भोजन श्रृंख्ला:
रस चूस कर गुजारा करने के लिए इस कीट वास्ते धरती पर कपास के अलावा फुल--गोभी, पत्त--गोभी, सरसों, तोरिया, मक्की, आलू, बैंगन, भिन्डी, मिर्च व टमाटर आदि पौधे मौजूद हैं. इसको खाने के लिए फसल--तंत्र में कराइसोपा, ब्रुमस, लेडी बीटल  व डैम्सैल मक्खियाँ मौजूद रहती हैं. दीदड़  व् एंथु जैसे विभिन्न मांसाहारी बुगडे भी इनका कल्याण कर डालते हैं.
Eretmocerus spp.
एन्कार्सिया व इरेट्मोसेरस नामक सम्भीरकायें इस कीट के निम्फों व स्यूडो--प्यूपा को परजीव्याभीत करते हुए पाई जाती हैं.

Wednesday, August 5, 2009

प्राकृतिक कीटनाशी - दीदड़ बुगडा

दीद्ड़ बुगड़ा का प्रौढ़
बड़ी - बड़ी आँखों वाला यह छोटा सा किसान हिमायती कीट जिला जींद में भी पाया जाता है। सिर के दोनों ओर बाहर तरफ की उभरी हुई बड़ी-बड़ी आखों के कारण ही इसे यहाँ के किसान दीदड़ बुगड़ा कहते हैं। माँ की दुधी के साथ अंग्रेजी घोट कर पीये हुए लोग, इसे Big Eyed Bug कहते हैं। जीव-जंतुओं के नामकरण की द्विपदी प्रणाली के मुताबिक इसका नाम Geocoris sp. है। इस प्रणाली के अनुसार यह कीट Hemiptera क्रम के Lygaeidae परिवार का सदस्य है।

पहचान:
दीद्ड़ बुगड़ा का निम्फ
इस कीट का शरीर अन्डेनुमा पर थोड़ा बहुत चपटा होता है।  जाथर को देखते हुए इसका ललाट चौड़ा होता है जिसके दोनों तरफ़ बाहर की ओर उभरी हुई बड़ी-बड़ी आँखें होती हैं। इसके शरीर की लम्बाई लगभग चार मिलीमीटर होती है. इसके शरीर का रंग आमतौर पर स्लेटी, भूरा या हल्का पीला होता है। मुँह के नाम पर इस कीट का सुई जैसा डंक होता है जिसकी मदद से यह कीट अन्य कीड़ों का खून चूसता है।  इसके
निम्फ अपने प्रौढों जैसे ही होते है। बस  प्रौढों की तरह निम्फों के
पंख नहीं होते।
खान पानः
यह कीट शारीरिक तौर पर जितना छोटा होता है, शिकारी के तौर पर उतना ही खोटा होता है। इस कीट में उपर - नीचे व अगल - बगल में तेज़ी से घूमने की काबिलियत होती है। इस  गजब की चाल के कारण ही यह कीट उम्दा किस्म का आखेटक होता है। इस कीट के निम्फ व प्रौढ़, दोनों ही,  कुटकियों, चेप्पों व पौधों की पत्तियों पर पाए जाने वाले फुदकों का खून चूस कर अपना गुजारा करते हैं। ये बुगडे़ छोटी - छोटी इल्लियों, मकड़ीनुमा कुटकियों व पिस्सूआ बीटलों का भी खून पीते हैं। ये दीदड़ बुगडे़ सुई जैसी अपनी डंक की मदद से विभिन्न कीटों के अण्डों से जीवन-रस चूसने के तो विशेषज्ञ होते हैं। अंडे चाहे अमेरिकन सुंडी के हों, चित्तकबरी सुंडी के हों, गुलाबी सुंडी के हों, भुन्डों के हों, बीटलों के हों या किसी भी कीट के हों - इनके भोजन  का मुख्य हिस्सा होते हैं।
क्रिप्टोलेमस, ब्रुमस व नेफस जैसी किसान हिमायती छोटी - छोटी बीटलों का शिकार करने में भी इनको कोई गुरेज़ नहीं होता।  "बूढा मरो या जवान - हत्या सेती काम" किसानों का दोस्त फंसे या दुश्मन  - इस बात से इन बुगडों को कोई मतलब नहीं होता। बस इन्हें तो अपना पेट भरने से मतलब होता है  वो किसी के खून से  भर जाए- कोई बात नही। कपास की फसल में मिलीबग पाए जाने पर इन बुगडों के निम्फों व प्रौढों के ठाठ हो जाते हैं। कपास की फसल में मिलीबग का खून चूसते हुए इस दीदड़ बुगडे की वीडियो निडाना के किसानों ने बनाई है।  देखना या ना देखना, मर्जी आपकी। प्रकृति में खाने और खाए जाने के अदभुत खेल के खिलाड़ी भी हैं ये बुगडे। पर हमारे फसल- तंत्र में इनको खाने वाले कम तथा इन द्वारा खाए जाने वाले अधिक हैं।  इसीलिए तो इन दीदड बुगडों की गिनती किसानों की कीट-नियंत्रण में सहायता करने वाले उम्दा हिमायतियों में होती है। किसानों व कीटों को इस बात की जानकारी है या नहीं, ये  जानकारी तो हमेँ भी नहीं।