Monday, February 13, 2012

सरसों में चेपा- एक शाकाहारी कीट

चेपा सरसों की फसल का प्रमुख कीट है। इस कीट के शिशु एवं प्रौढ़ दोनों ही सरसों की फसल में पत्तों, टहनियों, फुन्गलों, कलियों व् कच्ची फलियों से रस पीकर अपना जीवनयापन एवं वंशवृद्धि करते हैं। अंग्रेज इसे Aphid कहते हैं। जबकि कीट विज्ञानी इस कीट को Lipaphis erysimi नाम से पुकारते हैं। इस चेपे का वंशक्रम Hemiptera व् कुटुंब Aphididae होता है।
सरसों की फसल के अलावा यह कीट तोरिया, तारामीरा, बंदगोभी, फूलगोभी व् करम कल्ला आदि फसलों में भी पाया जाता है। दिसम्बर से मार्च के मध्य सर्द एवं मेघमय मौसम इस कीट के लिए सर्वाधिक माफिक होता है। इस कीट की मादा अपने जीवनकाल में बिना निषेचन ही तकरीबन सौ-सवासौ शिशुओं को जन्म देती है। इस तरह पैदा हुए सभी बच्चे जनाने होते हैं और सात-आठ दिन में ही खा पीकर प्रौढ़ मादा के रूप में विकसित हो जाते हैं। इस तरह से एक साल में ही इस कीट की एक-दुसरे में गुत्थी हुई चालीस-चवालीस पीढियां पैदा हो जाती हैं। वसंत व् पतझड़ ऋतू में इस कीट की मादाएं नारों से मधुर-मिलन करके निषेचित प्रजनन से बच्चे पैदा करती हैं। ये शिशु पंखदार प्रौढ़ों के रूप में विकसित होते हैं। यही पंखदार प्रौढ़ गर्मियों में पहाड़ों पर कूच कर जाते हैं। लेकिन इस व्यापक प्रव्रजन के बावजूद मामूली संख्या में ये यहाँ भी रह जाते हैं जो गोभिया व् सरसों कुल के आवारा पौधों पर गुज़ारा करते हुए नजर आ जाते हैं। 
  इस कीट का ज्यादा प्रकोप होने पर सरसों के पौधे निश्तेज़ होने लगते हैं। प्रकोपित पत्ते मुड़ने-तुड़ने लगते हैं। प्रकोपित फूलों से फलियाँ नही बन पाती। प्रकोपित फलियों में दानें हलके रह जाते हैं। पर मजबूत खाद्य श्रृंखला वाले इस प्राकृतिक तंत्र में एक-तरफा फूलने-फलने की छुट किसी भी जीव को नही है। फिर ये चेपा कैसे अपवाद हो सकता है! इस चेपे के निम्फों एवं प्रौढ़ों को खा कर अपना व् बच्चों का  पेट भरने वाले अनेकों कीट भी सरसों की फसल में पाए जाते हैं। लपरो(Coccinella septumpunctata) व् चपरो(Menochilus sexmaculatus) नामक लेडी बिटलों के प्रौढ़ एवं बच्चे इस चेपे को थोक के भाव खाते हैं। सिरफड़ो(Syrphus spp) मक्खी की अनेकों प्रजातियों के मैगट भी इस कीट के शिशुओं व् प्रौढ़ों का भक्षण उछाल-उछाल कर बड़े चाव से करते हैं।
    दीदड़ बुग्ड़े के प्रौढ़ एवं शिशु भी इस चेपे का खून पीकर गुज़ारा करते देखे गये हैं।
Lysiphlebus testaceipes
             एफ़ीडियस नामक परजीव्याभ सम्भीरका के साथ-साथ अन्य कई परजीव्याभ सम्भीरकायें भी अपने बच्चे इस चेपे के पेट में पलवाती हैं। चेपे के पेट में एफ़ीडियस का बच्चा पड़ते ही चेपा फुल कर कुपा होने लगता है और खाना पीना छोड़ देता है। अंतत: चेपा बिराने बालक पालने के चक्कर में ही मारा जाता है।  
कीटभक्षी कवक
            कुछ कीटभक्षी कवक भी इस चेपे को मौत की नींद सुलाते पाए जाते हैं। ऐसी एक सफ़ेद रंग की फफूंद से ग्रसित चेपा प.जयकिशन के खेत में किसानों ने सरसों की फसल में पकड़ा है। इस फफूंद के कारण चेपा रोग ग्रस्त होकर मौत की नींद सौ चूका है।
इतने सारे कीटभक्षी कीट एवं कवक तथा परजीव्याभ कीट मिलकर इस चेपे को निरंतर खत्म करते रहते हैं। इस तरह से यह चेपा शायद ही हमारी फसल में हानि पहुचने के स्तर पर पहुंचे। इसीलिए किसानों को कीड़े काबू करने की बजाय उनको जानने व् समझने की कौशिश करनी चाहिए।

Friday, February 10, 2012

सरसों में शाकाहारी कीट- धौलिया

 नाम का धौलिया अर रंग का कालिया यह कीड़ा सरसों की फसल में पाया जाने वाला एक शाकाहारी कीट है। सरसों की फसल के अलावा यह कीट तोरिया, तारामीरा, बंदगोभी, फूलगोभी व् करम कल्ला आदि फसलों में भी पाया जाता है। यह  कीट  बाजरा, ज्वार, मक्की  व् कपास की फसल पर भी गुज़ारा कर लेता है।  इस बुग्ड़े के प्रौढ़ एवं निम्फ, दोनों ही फसल में पत्तों व् कच्ची फलियों से रस चूस कर गुज़ारा करते हैं। पत्तियों से ज्यादा रस निकल जाने पर वे मुरझा कर सुख भी सकती हैं।  फसल की प्रारम्भिक अवस्था में इस कीट का आक्रमण होने पर सरसों की फसल में नुकशान भी हो सकता है। खासकर जब फसल अभी इंच-दो इंच की हो तथा प्रति पौधा कीटों की संख्या 3 -4  पायी जाने लगे। इस समय फसल के पत्तों पर सफ़ेद निशान पड़ जाते हैं। इसीलिए शायद किसान इस बुग्ड़े को धौलिया नाम से पुकारने लगे। अंग्रेज इस कीट को Painted bug कहते हैं। जबकि कीट विज्ञानी इसे Bagrada hilaris नाम से पुकारते हैं। वे बताते हैं की इस बुग्ड़े का नाता Hemiptra वंशक्रम से है तथा इसके कुनबे का नाम Pentatomidae है।
    इस कीट के जीवन काल में तीन अवस्थाये होती हैं: अंडा; निम्फ व् प्रौढ़। प्रौढ़ मादा अपने जीवनकाल में लगभग 90-100 अंडे देती है। देखने में गोल-गोल इन अण्डों का रंग पीला-पीला सा होता है। अंडे एक-एक करके या गुच्छों में दिए जाते हैं। एक गुछे में 5-8 अंडे हो सकते हैं। मादा अपने ये अंडे पत्तों पर, डालियों पर, फलियों पर या भूमि में देती है। गर्मियों में तो इन अण्डों से चार-पांच दिन में निम्फ निकल आते है जबकि सर्दियों में अधिक समय लगता है।
इस बुग्ड़े के ये निम्फ काले रंग के होता है तथा इनके शारीर पर भूरे व् सफ़ेद चकते होते हैं। पूरण विकसित होने पर इनके शारीर की लम्बाई-चौड़ाई 4.0X2.5 मी.मी. होती है। जन्म से लेकर प्रौढ़ के रूप में विकसित होने तक ये निम्फ पांच बार कांजली उतारते हैं।
इस कीट के प्रौढ़ संतरी व् सफ़ेद धब्बों के साथ काले रंग के ही होते हैं। देखने में ढ़ाल जैसे दिखाई देते हैं। मादाएं आकार में नरों के मुकाबले बड़ी होती हैं। हरियाणा में चाहे किसी किसान ने मोरनी-मोर के मधुर-मिलन को देखा या न देखा हो पर इस धौलिया बुग्ड़े के रतिरत जोड़े सभी किसानों ने खूब देख रखे हैं।
    निडाना के किसानों ने इस बुग्ड़े के प्रौढ़ कभी-कभार मकड़ी के जाले में तो उलझे देखे हैं पर इसको खाने वाले कीड़े नही देखे हैं। यह तो प्रकृति में संभव नही कि इस कीट के परभक्षी, परजीव्याभ, परजीवी व् रोगाणु ना हों। पर निडाना के किसानों को इन महानुभावों के दर्शन नहीं हुए हैं। आपको दिखाई दे जाएँ तो जरुर जल्दी से जल्दी सुचना करना।
यह कीट अक्तूबर महीने की शुरुवात में ही दिखाई देने लग जाता है। फसल में इसका ज्यादा प्रकोप अक्तूबर के आखिर में होता है। सरसों की बिजाई अक्तूबर के आखरी सप्ताह में करने से फसल पर इस कीट का प्रकोप कम होता है।




Tuesday, February 7, 2012

साँठी वाली सुंडी

 साँठी वाली सुंडी एक ऐसा कीड़ा है जो कपास की फसल में पाए जाने वाले  साँठी, चौलाई व् कुंदरा आदि खरपतवारों के पत्तों को खा कर अपना गुज़ारा करता है। जिला जींद के निडाना गावं में किसानों ने अनेक अवसरों पर इस कीड़े को अपनी कपास की फसल में साँठी को ख़त्म करते हुए देखा है। खरपतवार का प्राकृतिक नियंत्रण। पर अफ़सोस कि बहुत सारे किसानों को भय बना रहता है कि कहीं यह कीड़ा सांठी को ख़त्म करके उनकी कपास की फसल को नुकशान न करदे। इसीलिए वो साँठी को ख़त्म करने के लिए खरपतवारनाशियों का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन निडाना खेत पाठशाला के किसान इस साँठी का सफाया करने के लिए किसी खरपतवारनाशी का इस्तेमाल नही करते। उनके खेतों में तो यह साँठी वाली सुंडी ही यह काम कर देती है। उन्होंने कभी भी इस साँठी वाली सुंडी को कपास के पत्ते खाते नहीं देखा। फिर इससे डर कहे का?
 इस कीड़े को कीट विज्ञानं की भाषा में Spoladea recurvalis कहते हैं। इस कीड़े के कुनबे का नाम Crambidae है। इसका वंशक्रम Lepidoptera है। अंग्रेज इस कीड़े को beet webworm कहते हैं। यह कीड़ा भगवान की तरह सर्वशक्तिमान हो या ना हो पर सर्वव्यापी तो है। दुनिया के तकरीबन देशों में पाया जाता है।
इस कीट के प्रौढ़ का रंग गहरा भूरा होता है तथा इसके पंखों पर सफेद धारियाँ होती है। इसकी शिवासन मादा एक-एक करके या गुच्छों में अंडे देती है। अंडे साँठी के पत्तों की निचली सतह पर दिए जाते हैं। इस कीट की मादा पतंगा अपने 12 -14  दिन के जीवन काल में लगभग 200  अंडे देती है। इन अण्डों से 5 -6  दिन में नवजात सुंडियां निकलती हैं। इन नवजात एवं तरुण सुंडियों की त्वचा पारदर्शी व् रंग हरा होता है। बड़ी होने पर इन सुंडियों का रंग लाल सा हो जाता है। इन सुंडियों को पूर्ण विकसित होने में 20 -22  दिन का समय लगता है। इस दौरान ये 4 -5 बार कांजली उतारती है। ये सुंडियां भूखड़ किस्म की होती हैं।  मुख्य शिरा को छोड़कर पुरे के पुरे पत्ते को खा जाती है। ढांचा भर रहे साँठी के पौधे अंतत: सुखकर मर जाते है।
                                         हमारी फसलों में इस सुंडी का उपभोग करने के लिए Cotesia plutellae नामक ब्रेकोन सम्भीरका बहुतायत में होती हैं। ट्राईकोग्रामा नामक सम्भीरका अपने बच्चे इस कीड़े के अण्डों में पालती है। इस कीट के प्रौढ़ों को उड़ते हुए ही लोपा मक्खियाँ पकड़ लेती हैं व् चट कर जाती हैं। डायन मक्खियाँ इस कीट के प्रौढ़ पतंगों का शिकार दिन-धौली करती हैं। दीदड़ बुग्ड़े, फलैरी बुग्ड़े, कातिल बुग्ड़ेसिंगु बुग्ड़े इस कीट के अंडों से जूस व् सुंडियों से खून पीने की ताक में रहते हैं। निडाना के किसानों ने इस कीट के प्रौढ़ पतंगों को मकड़ियों द्वारा लपेटते व् खाए जाते देखा है। मुंद्रो व् सुंद्रो नामक जारजटिया समूह के कीट भी इस कीट को भोजन के रूप में इस्तेमाल करते हैं। प्रकृति में इतना गज़ब का संतुलन होने के बावजूद भय एवं भ्रम के शिकार किसान इस कीट को काबू करने के लिये पीठ पर कीटनाशी पिठू लादे मिल जायेंगे। ऐसे समझदार किसानों का तो राम बरगा यू कीटनाशी बाज़ार ही रुखाला हो सकता है!