Sunday, September 2, 2012

इनो - एक परपेटिया कीटनाशी

कीट नियंत्रण के नाम पर आज बाज़ार में जितने ब्राण्ड के जहरीले कीटनाशी उपलब्ध हैं, उनसे कहीं ज्यादा किस्म के कीटनाशी कीट हमारी फसलों में मौजूद हैं। इन्हीं कीटनाशी कीटों में एक यह है- इनो। निडाना व् ललित खेड़ा के किसान इसी नाम से जानते हैं। इनो अपने बच्चे सफ़ेद मक्खी के शिशुओं के पेट में पलवाती है। इसीलिए निडाना कीट साक्षरता केंद्र के किसान इसे   परपेटिया कीटनाशी कहते हैं। बामुश्किल आधा - एक मिलीमीटर के इस कीड़े का नामकरण दुनिया की किसी भी जन भाषा में नहीं हुआ। पर कीट वैज्ञानिकों की भाषा में जरुर इसको  Encarcia spp. के रूप में पुकारा जाता हैं। वैज्ञानिकों की छोटी सी दुनिया में इसका वंशक्रम Hymenoptera व् कुणबा Aphelinidae बताया जाता है।
                      नाम में क्या रखा है। नाम तो कुछ रख लो। असली बात तो है इनको पहचानने की, समझने की व् परखने की।
सुनैहरी पीले रंग की इस संभीरका की मादा प्रजनन के लिए कपास के पत्तों पर सफ़ेद मक्खी की कालोनियों की तलाश में घूमती है। यहाँ सफेद मक्खी के शिशुओं को अपने एंटिनों से टटोल-टटोल कर उपयुक्त पालनहार की खोज करती है। उपयुक्त पालनहार मिलते ही यह मादा अपना एक अंडा पत्ते की सतह और मेज़बान के मध्य चुपके से रख देती है। इस तरह से इस छोटी सी ततैया को अपने छोटे से जीवन काल में सवासौ-डेढ़ सौ अंडे देने होते हैं। अत: इतने ही पालनहार ढूंढने पड़ते हैं। अंडे से निकलते ही इस ततैया का बच्चा पालनहार के पेट में घुस जाता है। और वहीं बैठा-बैठा आराम से मेज़बान को अन्दर से खाकर पलता-बढ़ता रहता है। इनो का यह बच्चा पूर्ण विकसित होकर प्युपेसन भी मेज़बान के शारीर में ही करता है। और फिर एक दिन इस मेज़बान के शारीर में गोल घट्टा कर एक प्रौढ़ अपना स्वतंत्र जीवन जीने के लिए बाहर निकलता है। इस सारी कार्यवाही में मेज़बान को तो निश्चित तौर पर मौत ही नसीब होती है। इस कीट के प्रौढ़ अपना गुज़र-बसर सफ़ेद मक्खियों को खा-पीकर करते हैं।

      है ना गज़ब की प्राकृतिक कीटनाशी यह छोटी सी संभीरका। सफ़ेद मक्खी के लिए यमदूत और फसल के लिए रक्षक।

Saturday, September 1, 2012

बाजरे की सिर्टियों पर गुबरैले का बसेरा


यू हरे धातुई रंग का भूंड जो बाजरे की सिर्टियों पर बैठा दूर तै एँ नजर आया करै। यू  चर्वक किस्म का एक शाकाहारी गुबरैला सै। अंग्रेजी में इस कीड़े को Rose chafer के रूप में जाना जाता है। कीट विज्ञानियों की दुनिया में इसे Cetonia aurata नाम से पुकारा व् लिखा जाता है। इस कीट के प्रौढ़ प्राय गुलाब के फूलों पर मधुरस व् परागकण पर गुज़ारा करते नजर आते हैं। पर हरियाणा के खेतों में तो गुलाब के पौधे होते ही नही। इसीलिए इस गुबरैले को बाजरे की सिर्टियों पर काचा बुर(परागखा कर गुज़ारा करना पड़ता है। और करै भी के? इसनै तो भी अपना पेट भरना सै अर वंश वृद्धि का जुगाड़ करना सै। बाजरे की फसल में तो बीज पराये पराग से पड़ते हैं। अत: इस कीट द्वारा बाजरे की फसल में पराग खाने से कोई हानि नही होती। बल्कि जमीन में रहने वाले इसके बच्चे तो किसानों के लिए लाभकारी सै क्योंकि जमीन में वे केंचुवों वाला काम करते हैं। अत: इस कीड़े को बाजरे की सिर्टियों पर देखकर किसे भी किसान नै अपना कच्छा गिला करण की जरुरत नही अर ना किते जा कर इसका इलाज़ खोजन की।
आपने हरियाणा में ज्युकर बहुत कम लोगाँ नै मोरनी पै मोर चढ्या देखा सै न्यू यू कीड़ा भी शायद बहु ही कम किसानों व् कीट वैज्ञानिकों नै ज्वार की सिर्टियों पर देखा सै। असली बात तो या सै अक यू कीड़ा सै भी ज्वार की फसल का कीड़ा। पर कौन देखै ध्यान तै ज्वार की सिर्टीयाँ नै।
इस कीड़े को खान खातिर म्हारे खेताँ में काबर, कव्वे व् डरेंगो के साथ-साथ लोपा मक्खियाँ भी खूब सैं अर डायन मक्खी भी खूब सै।  बिंदु-बुग्ड़े, सिंगू-बुग्ड़े व् कातिल-बुग्ड़े भी नज़र आवैं सैं।  हथ्जोड़े तो पग-पग पर पावे सै। यें भी इसका काम तमाम करे सै।