"पतली कमर पर ढुंगे पै चोटी कोन्या !!
सै कुम्हारी पर कुम्हारों आली कोन्या !!"
असल में यह तो भीरड़-ततैयों वाले कुनबे की सै। अपना जापा काढण ताहि यह ततैया चिकनी मिटटी से छोटे-छोटे मटकों का निर्माण करती है। इसीलिए किसानों ने इसका नाम कुम्हारी रख लिया। वैसे तो इस ततैया की दुनिया भर में सैकड़ों प्रजातीय पाई जाती होंगी पर निडाना की कपास व् धान की फसल में तो अभी तक किसानों ने यही एक प्रजाति देखी है। यह कीट एकांकी जीवन जीने का आदि है मतलब समूह की बजाय अकेले-अकेले रहना पसंद करता है। काली, पीली व् गुलाबी छटाओं वाली इस ततैया की शारीरिक लम्बाई तकरीबन 15 -17 मी.मी. होती है। यह सही है कि इस कीट के प्रौढ़ तो फूलों से मधुरस पीकर अपना गुजर-बसर करते हैं पर इनके शिशुओं को अपनी शारीरिक वृद्धि के लिए बिना बालों वाली सुंडियां चाहिए। इसीलिए तो आशामेद होते ही इस कीट की मादा अंडे देने के लिए चिकनी मिटटी के छोटे-छोटे मटकों का निर्माण शुरू करती है। मटकों के लिए घरों से बाहर ऐसी जगह का चुनाव करती है जहाँ ये मटके सूरज के ताप, वायु के वेग और वर्षा की आल से सुरक्षित रह सके। चिकनी मिटटी तलाश कर, उसकी छोटी-छोटी गोलियां बनाती है तथा उन्हें अपने मुहँ और अगली टांगों की सहायता से निर्माण स्थल तक लाती है। इस मादा को एक फेरा पूरा करने में पांच मिनट तथा एक मटका घड़ने में लगभग आधा दिन लग जाता है। इस कपास के पत्ते पर मिटटी तो तीन मटकों के लिए ढ़ो राखी थी पर निर्माण एक का ही कर पाई थी कि फोटों खीचने वालों ने तंग कर दी। मटके घड़ने का काम पूरा करके खेतों में निकलती है यह मादा ततैया। वहां रोयें रहित सुंडियां तलाशती है। एक सुंडी ढूंढने में घंटा लग जाता है। सुंडी मिलते ही अपने डंक द्वारा जहर छोड़ कर उस सुंडी को लुंज कर देती है और उसे मटके में ला पटकती है। प्रत्येक मटके में सात-आठ से दस- बारह सुंडी रखती है। फिर हरेक मटके में अपना एक अंडा रखती है। इसके शिशु इन भंडारित सुंडियों को ही खा-पीकर विकसित होते है। मटके में ही प्युपेसन अवस्था पूरी करते हैं। मटके में अंड-निक्षेपण के बाद यह मादाएं मटके के मुहँ को बंद करना नही भूलती। आवासीय निर्माण के दौरान और बाद में भी ये ततैया मटकों के पास विश्राम नहीं करती। इस ततैया के नर मधुर-मिलन के अलावा दूर से ही सही, इन मटकों क़ी चौकीदारी तो करते हैं।
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