चेपा सरसों की फसल का प्रमुख कीट है। इस कीट के शिशु एवं प्रौढ़ दोनों ही सरसों की फसल में पत्तों, टहनियों, फुन्गलों, कलियों व् कच्ची फलियों से रस पीकर अपना जीवनयापन एवं वंशवृद्धि करते हैं। अंग्रेज इसे Aphid कहते हैं। जबकि कीट विज्ञानी इस कीट को Lipaphis erysimi नाम से पुकारते हैं। इस चेपे का वंशक्रम Hemiptera व् कुटुंब Aphididae होता है।
सरसों की फसल के अलावा यह कीट तोरिया, तारामीरा, बंदगोभी, फूलगोभी व् करम कल्ला आदि फसलों में भी पाया जाता है। दिसम्बर से मार्च के मध्य सर्द एवं मेघमय मौसम इस कीट के लिए सर्वाधिक माफिक होता है। इस कीट की मादा अपने जीवनकाल में बिना निषेचन ही तकरीबन सौ-सवासौ शिशुओं को जन्म देती है। इस तरह पैदा हुए सभी बच्चे जनाने होते हैं और सात-आठ दिन में ही खा पीकर प्रौढ़ मादा के रूप में विकसित हो जाते हैं। इस तरह से एक साल में ही इस कीट की एक-दुसरे में गुत्थी हुई चालीस-चवालीस पीढियां पैदा हो जाती हैं। वसंत व् पतझड़ ऋतू में इस कीट की मादाएं नारों से मधुर-मिलन करके निषेचित प्रजनन से बच्चे पैदा करती हैं। ये शिशु पंखदार प्रौढ़ों के रूप में विकसित होते हैं। यही पंखदार प्रौढ़ गर्मियों में पहाड़ों पर कूच कर जाते हैं। लेकिन इस व्यापक प्रव्रजन के बावजूद मामूली संख्या में ये यहाँ भी रह जाते हैं जो गोभिया व् सरसों कुल के आवारा पौधों पर गुज़ारा करते हुए नजर आ जाते हैं।
इस कीट का ज्यादा प्रकोप होने पर सरसों के पौधे निश्तेज़ होने लगते हैं। प्रकोपित पत्ते मुड़ने-तुड़ने लगते हैं। प्रकोपित फूलों से फलियाँ नही बन पाती। प्रकोपित फलियों में दानें हलके रह जाते हैं। पर मजबूत खाद्य श्रृंखला वाले इस प्राकृतिक तंत्र में एक-तरफा फूलने-फलने की छुट किसी भी जीव को नही है। फिर ये चेपा कैसे अपवाद हो सकता है! इस चेपे के निम्फों एवं प्रौढ़ों को खा कर अपना व् बच्चों का पेट भरने वाले अनेकों कीट भी सरसों की फसल में पाए जाते हैं। लपरो(Coccinella septumpunctata) व् चपरो(Menochilus sexmaculatus) नामक लेडी बिटलों के प्रौढ़ एवं बच्चे इस चेपे को थोक के भाव खाते हैं। सिरफड़ो(Syrphus spp) मक्खी की अनेकों प्रजातियों के मैगट भी इस कीट के शिशुओं व् प्रौढ़ों का भक्षण उछाल-उछाल कर बड़े चाव से करते हैं।
दीदड़ बुग्ड़े के प्रौढ़ एवं शिशु भी इस चेपे का खून पीकर गुज़ारा करते देखे गये हैं।
एफ़ीडियस नामक परजीव्याभ सम्भीरका के साथ-साथ अन्य कई परजीव्याभ सम्भीरकायें भी अपने बच्चे इस चेपे के पेट में पलवाती हैं। चेपे के पेट में एफ़ीडियस का बच्चा पड़ते ही चेपा फुल कर कुपा होने लगता है और खाना पीना छोड़ देता है। अंतत: चेपा बिराने बालक पालने के चक्कर में ही मारा जाता है।
कुछ कीटभक्षी कवक भी इस चेपे को मौत की नींद सुलाते पाए जाते हैं। ऐसी एक सफ़ेद रंग की फफूंद से ग्रसित चेपा प.जयकिशन के खेत में किसानों ने सरसों की फसल में पकड़ा है। इस फफूंद के कारण चेपा रोग ग्रस्त होकर मौत की नींद सौ चूका है।
दीदड़ बुग्ड़े के प्रौढ़ एवं शिशु भी इस चेपे का खून पीकर गुज़ारा करते देखे गये हैं।
Lysiphlebus testaceipes |
कीटभक्षी कवक |
इतने सारे कीटभक्षी कीट एवं कवक तथा परजीव्याभ कीट मिलकर इस चेपे को निरंतर खत्म करते रहते हैं। इस तरह से यह चेपा शायद ही हमारी फसल में हानि पहुचने के स्तर पर पहुंचे। इसीलिए किसानों को कीड़े काबू करने की बजाय उनको जानने व् समझने की कौशिश करनी चाहिए।
grt........sir
ReplyDeleteSir, Thanks for sharing this vital information. Please also share Chemical-control measures for the same.
ReplyDeleteDear Nikhil u will be surprized to know that we need not to control insects in anyway. we should recognize, understand and try the insects.
ReplyDeleteधन्यवाद sir. क्या आप whatsapp व facebook पर भी समस्याएं सुलझाते है ?
ReplyDeleteControl is essential otherwise they reduce crop to great extent.
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